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कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय ९ जीव का सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार उनसे एक दिन बिलकुल छुटकारा भी हो सकता
है।
इस प्रकार कर्मविज्ञान ने नौ ही तत्त्वों का स्वरूप बताकर प्रकारान्तर से उनकी हेयता, ज्ञेयता, उपादेयता भी ध्वनित कर दी है। कर्मविज्ञान का नौ तत्त्वों के निर्देश का उद्देश्य
इसमें प्रथम तत्त्व जीव है, और अन्तिम तत्त्व है मोक्ष। इसका आशय भी यही है कि जीव ही कर्मों का कर्ता, धर्ता, फलभोक्ता, कर्मनिरोधकर्ता, कर्मक्षयकर्ता और कर्मभोक्ता है। कर्मविज्ञान का उद्देश्य भी यहाँ परिलक्षित होता है कि जीव अपने अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर सके, इसीलिए बीच के तत्त्वों का मोक्ष-प्राप्ति में साधक-बाधक के रूप में निर्देश किया है। कर्म की अपेक्षा से नौ तत्त्वों में कौन हेय, ज्ञेय, उपादेय ?
निष्कर्ष यह है कि वीतराग सर्वज्ञ-देव ने उन्हीं पदार्थों को कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में तत्त्वभूत बताया है, जो मुमुक्षु आत्मा के लिए हेय, ज्ञेय और उपादेय हैं। मुमुक्षु आत्मा इन जिनोपदिष्ट नी तत्त्वों में से जो पदार्थ जैसा भी हेय, ज्ञेय और उपादेय बताया गया है; उनमें से हेय को हेयरूप में, उपादेय को उपादेयरूप में और ज्ञेय को ज्ञेयरूप में जो जानता है वही सम्यक्दृष्टि है, वही श्रावक और साधु बन सकता है। श्रमणोपासक की अर्हता के लिए शास्त्रों में बताया है कि वह जीव-अजीव, आसव-संवर, बन्ध-मोक्ष, निर्जरा तथा पुण्य-पाप आदि तत्त्वों के रहस्य का ज्ञाता एवं निपुण होना चाहिए।
इन नौ तत्त्वों में से जीव और अजीव ज्ञेय हैं। पाप, आस्रव और बन्ध हेय हैं, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीनों तत्त्वों को उपादेय बताया है। पुण्य को कथञ्चित् हेय और कथञ्चित् उपादेय बताया है।
· इन नौ तत्त्वों में जीव तत्त्व (आत्मा) सबसे प्रमुख तत्त्व है। वही शेष तत्त्वों का केन्द्र है। शेष पदार्थ इसी जीव तत्त्व (आत्मा) के विकास-हास, शुद्धि-अशुद्धि या विकृतिअविकृति में निमित्त कारण हैं। कर्मविज्ञान की दृष्टि से नौ तत्त्वों में ज्ञेय, हेय और उपादेय तत्त्व
जैनकर्मविज्ञान की दृष्टि से नौ तत्त्वों में सम्यग्दृष्टि मानव के लिए ज्ञेय, हेय और उपादेय का विश्लेषण करते हुए जैनाचार्यों ने कहा-नौ तत्त्वों में जीव और अजीव, ये
१. देखें, जैनतत्त्वकलिका (आचार्य आत्माराम जी) से भावांश उद्धृत पृ.७२-७३,७९ २. “सुत्तत्यंजिणभणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्यं। हेयाहेयं च तहा, जो जाणई, सो हु सुद्दिवी॥
-सूत्रप्राभृत गा.५
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