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१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
दोनों तत्त्व ज्ञेय हैं। इनमें समस्त लोक, विश्व या जगत के अस्तित्व, वस्तुत्व और गुणधर्मत्व (मूल्य-निर्णयत्व) के ज्ञान का समावेश हो जाता है। पाप, आस्रव और बन्ध; ये तीनों हेय तत्त्व हैं। मनुष्य को क्या छोड़ना और क्या नहीं करना चाहिए? यह इन तीन तत्त्वों से जाना जा सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये तीनों तत्त्व उपादेय हैं। इनसे यह जाना जा सकता है कि मनुष्य को क्या ग्रहण करना चाहिए तथा कौन सा कार्य करना चाहिए? पुण्य तत्त्व वैसे तो सोने की बेड़ी के समान बन्धकारक होने से निश्चयदृष्टि से हेय है, किन्तु व्यवहारदृष्टि से आत्मगुणों के विकास की साधना में सहायक होने से कथञ्चित् उपादेय समझना चाहिए।' कर्मदुःख से सम्बन्धित अध्यात्मजिज्ञासु द्वारा उठने वाले नौ प्रश्नों का नौ तत्त्वों के रूप में समाधान ___ कर्मदुःख को मिटाना प्रत्येक मुमुक्षु अथवा आध्यात्मिक जिज्ञासु का कर्तव्य है। कर्मों के कारण ही जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि दुःख उत्पन्न होते हैं। इसलिए तीर्थकरमहर्षियों ने कर्मरूपी दुःखों से आक्रान्त मुमुक्षु के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले नौ प्रश्नों के उत्तर के रूप में इन तत्त्वभूत नौ पदार्थों को कर्मविज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत किया है और इनका ज्ञान तथा इनके प्रति सम्यक् श्रद्धान आवश्यक बताया है।
सर्वप्रथम अध्यात्म-जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न उठता है-“मेरे आस-पास यह जो फैला हुआ संसार दिखाई देता है। जिसमें जन्म, जरा, मरण, रोग आदि नाना दुःख व्याप्त हैं, जिनकें मूल कारण कर्म हैं, वह वास्तव में क्या है ? उनके मूलभूत कारण कौन-कौन से
है?
इसके उत्तर में उन आप्तपुरुषों ने जीव और अजीव, इन दो तत्त्वों को प्रस्तुत किया।
सुख और दुःख के अनुभव करने (भोगने) के कारण क्या-क्या है ? इस प्रश्न के समाधान के रूप में उन्होंने पुण्य और पाप नामक दो तत्त्व प्रस्तुत किये।
मनुष्यों द्वारा की जाने वाली सत्प्रवृत्तियों का उद्देश्य दुःख-निवृत्ति अथवा दुःखविघात (दुःखनाश) और आत्यन्तिक सुख प्राप्ति है। इस अपेक्षा से फिर प्रश्न उठा-'क्या जन्म-मरणादि दुःखों से या कर्मों के कारण प्राप्त इन दुःखों से सर्वथा मुक्ति मिल सकती है?' इसके समाधान के लिए उन्होंने 'मोक्ष' नामक तत्त्व प्रस्तुत किया, जिससे समस्त दुःखों से सर्वथा निवृत्ति या मुक्ति तथा अनन्त आत्मिक सुखों की प्रप्ति हो सकती है।
१. देखें, जैन तत्त्वकलिका (आचार्य श्री आत्मारामजी) से भावांश उद्धृत पृ.८०
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