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८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
जीव के बाद अजीव तत्त्व का निर्देश क्यों?
इसी प्रकार अजीव तत्त्व ( समस्त जड़ - अचेतन पदार्थ ) के साथ भी जीव का सम्बन्ध हो तभी वह पूर्वोक्त प्रकार से शुभाशुभ कर्म-बन्ध करता है और वीतरागता की स्थिति में शुद्ध कर्म, अकर्म की स्थिति में पहुँच जाता है।
दूसरी बात, जीव की गति, स्थिति, अवगाहना, वर्तना आदि सब अजीव तत्त्व ( अचेतन) की सहायता के बिना असम्भव है, इसलिए दूसरे क्रम में जीव के बाद अजीव तत्त्व का निर्देश किया गया है।
शेष पुण्य-पापादि तत्त्व भी एक या दूसरे प्रकार से कर्म से सम्बद्ध
इसके पश्चात् पुण्य और पाप ये दो तत्त्व बताए गए हैं। ये भी शुभाशुभ कर्म-बन्ध के प्रतीक हैं। पुण्य और पाप जीव के सांसारिक सुख और दुःख के कारणभूत हैं। ये दोनों अजीव के एक विभाग- पुद्गल (कार्मण वर्गणा के पुद्गल ) के विकार हैं। अतः तीसरा और चौथा कर्ममूलक तत्त्व पुण्य और पाप हैं।
पाँचवाँ आनव तत्त्व है। इसके द्वारा सर्वज्ञ प्रभु ने बताया है कि आम्रव के बिना अर्थात् कर्मों के आगमन के बिना पुण्य और पाप नहीं हो सकते। इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्र में शुभ आम्रव को पुण्यबन्ध का और अशुभ आनव को पाप बन्ध का कारण बताया।
इसके पश्चात् छठा संवर तत्त्व है। जो आनव का प्रतिरोधी है, कर्मों के आगमनद्वारों को रोकता है। यह नये कर्मों को' आत्मा में प्रविष्ट नहीं होने देता। आम्रव निरोध आत्मविकास में सहायक है। अहिंसादि पंच महाव्रत या अणुव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, परीषहविजय, कषायविजय, इन्द्रिय-निग्रह आदि संवर के प्रकार हैं।
संवर के बाद निर्जरा नामक तत्त्व है, जो पूर्वबद्ध प्राचीन कर्मों का आंशिक रूप से क्षय करने हेतु प्रतिपादित किया गया है।
निर्जरा का प्रतिपक्षी आठवाँ बन्ध तत्त्व है। जिस प्रकार पूर्वबद्ध प्राचीन कर्म निर्जरा से झड़ जाते हैं। उसी प्रकार नये-नये कर्मों का बन्ध भी सांसारिक जीव के द्वारा राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि के कारण होता रहता है।
अतः कर्मबन्धन से सावधान रहने हेतु वीतराग आप्त पुरुषों ने आठवाँ बन्धतत्त्व बताया। इसमें बन्धकर्त्ता, बन्धयोग्य कर्म, बन्ध के कारण और बन्ध के प्रकार आदि सभी समाविष्ट हैं।
इसके पश्चात नौवाँ और अन्तिम तत्त्व मोक्ष बताया गया है। जिसका स्वरूप हैसर्वकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना - कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना। जिस प्रकार कर्मों से १. देखें, जैनतत्त्वकलिका (आचार्य श्री आत्माराम जी म. ) में लिखित मन्तव्य पृ. ७८
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