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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय ७ कर्मों का कर्त्ता, भोक्ता, क्षयकर्त्ता जीव ही है प्रस्तुत नौ तत्त्वों में जीवतत्त्व ही प्रमुख है; क्योंकि सभी तत्त्वों को जानने-समझने वाला तथा संसार और मोक्ष की, यानी कर्मों के आम्रव और बन्ध की, तथा कर्मों के संवर, निर्जरा और मुक्ति की प्रवृत्ति करने वाला जीव ही है। कहा भी है- कर्मों का कर्त्ता, कर्मफल भोक्ता, संसार में परिभ्रमण करने वाला और सदा के लिए कर्मों से मुक्त होने वाला संसारी जीव (आत्मा) ही है ।' जीव के बिना अजीव तत्त्व, अथवा पुण्य-पाप आदि तत्त्व सम्भव ही नहीं हो सकते। अतः सर्वप्रथम जीवतत्त्व का निर्देश कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है। जैसे कि पहले कहा गाथा, कर्म के बन्ध-मोक्ष, आनव-संवर एवं निर्जरा का विवेक और तदनुसार कर्म के हेयत्व, ज्ञेयत्व एवं उपादेयत्व का निर्णय जीव ही कर सकता है। “कर्म भी चेतनाकृत होते हैं, अचेतनाकृत नहीं" यह आगमवचन है।' दूसरी बात यह है कि कर्मविज्ञान में जीवतत्त्व को लेकर कर्ममर्मज्ञों द्वारा यह भी कहा गया है कि एक जीव का दूसरे जीव या जीवों के साथ सम्बन्ध बन्धकारक भी हो सकता है, अबन्धकारक भी। इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति दूसरे जीव (मानव, पशु-पक्षी या अन्य प्राणी) के प्रति मोह, ममत्व, आसक्ति, लालसा आदि करता है, अथवा द्वेष, ईर्ष्या, पक्षपात, घृणा, विद्रोह आदि करता है, तो उस जीव के लिए वह बन्धकारक होता है। यदि वह व्यक्ति दूसरे किसी जीव से कोई रागादिमय लगाव नहीं · रखता है अथवा वह उनके साथ रहते हुए भी रागादि से निर्लिप्त रहता है, तो वहाँ अबन्धकारक है। परन्तु गौतम स्वामी की तरह उसका अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु और सद्धर्म के प्रति प्रशस्त राग (प्रीति) है, तो वह प्रशस्तराग शुभकर्म का बन्धक है। इसी प्रकार यदि व्यक्ति कोई भी क्रिया या प्रवृत्ति स्व-परकल्याण की दृष्टि से यतनापूर्वक करता है, आत्मौपम्य भाव रखकर लोकहितकर कार्य करता है, तो वहाँ छद्मस्थ में राग्रांश होने से पापकर्म बन्धक न होकर पुण्य कर्मबन्धक होता है । अथवा रागांश सर्वथा न हो तो वहाँ शुद्ध कर्म (अकर्म, अबन्धक कर्म) होता है। अतः एक जीव के दूसरे जीव के साथ सम्बन्ध में शुभ-अशुभ कर्म का बन्ध भी जीव ही करता है और वही अकर्म की स्थिति को प्राप्त करता है। इसलिए जीवतत्त्व को प्राथमिकता दी गई है। १. " यः कर्त्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ २. 'जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अच्चेयकडा कम्मा कज्जति ।" -भगवती सूत्र १६ श. उ. २, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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