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६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ )
से यथार्थ नहीं होता; क्योंकि वह नयों, प्रमाणों, निक्षेपों तथा सापेक्षवाद की कसौटी पर कसा हुआ नहीं होता। इसलिए इन्द्रियों द्वारा किया जाने वाला वस्तु का मूल्यांकन समग्ररूप से प्रामाणिक नहीं माना जाता; क्योंकि प्रथम तो इन्द्रियाँ मन का अनुसरण करती हुई विषय का ग्रहण - निर्धारण करती है, इसलिए इन्द्रियों का बोध पूर्णतः यथार्थ होना सम्भव नहीं। फिर अतीन्द्रिय वस्तुओं के सम्बन्ध में इन्द्रियाँ साक्षात् बोध कर ही नहीं कीं, मन के द्वारा अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों से ही वस्तु का परोक्षरूप से बोध हो सकता है।
सर्वज्ञ आप्तपुरुषों द्वारा नौ तत्वों के माध्यम से यथावस्थित मूल्य-निर्णय
अतः कर्म जैसे अतीन्द्रिय अथवा यों कहें कि चतुःस्पर्शी पुद्गल रूप पदार्थ होते हुए भी साधारण आत्माओं की इन्द्रियों द्वारा यथार्थ रूप से अगोचर वस्तु का वास्तविक मूल्य-निर्धारण या गुणावगुण- विशेषता का आकलन अतीन्द्रिय ज्ञानी (सर्वज्ञ) ही कर सकते हैं।
साधारण या अल्पज्ञ आत्माओं द्वारा जो पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं जाना जाता, उसके अस्तित्व, वस्तुत्व एवं गुणावगुणत्व का अन्तिम निर्णय तो विशिष्ट प्रत्यक्षज्ञानियों (सर्वज्ञों) या श्रुतकेवलियों द्वारा ही किया जाता है। उनके द्वारा प्रतिपादित एवं प्ररूपित धर्म, कर्म आदि के तथ्यों तथा जीव आदि तत्त्वों को उनका अनुगामी साधुवर्ग या गृहस्थवर्ग श्रद्धा, प्रतीति और रुचिपूर्वक जानता मानता है और तदनुसार उनके अस्तित्व, वस्तुत्व एवं मूल्य का निश्चय करता है ।।
अतः वीतराग सर्वज्ञ आप्तपुरुषों, श्रुतकेवलियों, विभिन्न आचार्यों, उपाध्यायों एवं विशिष्ट श्रुतधर साधकों द्वारा इसी प्रकार कर्मसिद्धान्त का मूल्यांकन जीव आदि नौ तत्त्वों के माध्यम से किया गया है।
आशय यह है कि जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आम्लव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इन नौ तत्त्वों के माध्यम से परमज्ञानी आप्तपुरुषों ने जैन कर्मविज्ञान के अन्तर्गत कर्मसिद्धान्त का यथार्थ मूल्यांकन किया है। उन्होंने कर्म की उपादेयता - अनुपादेयता, अथवा उसकी हेयता और उपादेयता को इन नौ तत्त्वों के माध्यम से प्रतिपादित करके कर्मविज्ञान की महत्ता और विशेषता प्रकट कर दी है।
१ (क) देखें, जैनतत्त्वकलिका में इसके सम्बन्ध में मन्तव्य पृ. ३०४ (ख) 'जिण्रपण्णत्तं तत्तं " - आवश्यक सूत्र ।
२. जीवाजीवा य बंधो य, पुपणं पावासवो तहा।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥
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-उत्तराध्ययन, २८/१४
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