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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय ५ पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी के साथ संवाद में भगवान ने लोक-परलोक के सादृश्य-वैसादृश्य की चर्चा करते हुए बताया है कि लोक और परलोक के मूल में कर्म की सत्ता है, यह संसार कर्म मूलक है। छठे गणधर के साथ उनकी चर्चा का विषय कर्मों के बन्ध और कर्मों से मुक्ति है। साथ ही ‘जीव पहले है या कर्म?' इसका भी समीचीन समाधान दिया है। इसी प्रकार सातवें और आठवें गणधर के साथ हुए संवाद में देवों और नारकों के अस्तित्व की चर्चा है, जो कि शुभ-अशुभ कर्मों के फल से सम्बन्धित है।' नौंवें गणधर को भगवान ने पुण्य-पाप (शुभाशुभकर्म) के अस्तित्व के साथ-साथ कर्म के संक्रमण का नियम, कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया, कर्म का शुभाशुभरूप में परिणमन, कर्म के भेद-प्रभेद आदि अनेक बातें समझाईं हैं। दसवें गणधर को परलोक का अस्तित्व समझाते हुए यह तथ्य उजागर किया है कि परलोक कर्माधीन है। अन्तिम गणधर के साथ हुई निर्वाण (मोक्ष) सम्बन्धी चर्चा में भी यह तथ्य प्रतिपादित किया गया है कि अनादि कर्म-संयोग का नष्ट हो जाना ही निर्वाण है। यो समग्र गणधरवाद में कर्म के अस्तित्व, वस्तुत्व एवं मूल्य-निर्णय की पर्याप्त चर्चा करते हुए भगवान महावीर ने कर्मविज्ञान की महत्ता एवं विशेषता का प्रतिपादन एक या दूसरे प्रकार से कर दिया है। वस्तु का मूल्य-निर्धारण चेतना के अधीन यह तो निर्विवाद है कि कर्म के या किसी भी वस्तु के वस्तुत्व का या उसके यथार्थ स्वरूप का तथा उसके गुण-अवगुण अथवा मूल्य-अवमूल्य का निर्धारण तो चेतना के अधीन है। चेतना से सम्बद्ध हुए बिना किसी भी वस्तु का मूल्य-निर्धारण या उसकी विशेषता और महत्ता का आकलन नहीं हो सकता। खाद्य वस्तु के खट्टे, मीठे, घरपरे • आदि स्वाद का निर्णय जीव (आत्मा) के उपकरणरूप जिह्वेन्द्रिय के साथ संयोग होने पर - ही हो सकता है। इन्द्रियों के माध्यम से मूल्य-निर्धारण पूर्णतः यथार्थ नहीं यद्यपि प्रत्येक वस्तु का मूल्य-निर्णय चेतना से सम्बद्ध होने पर ही होता है; किन्तु इन्द्रियों के माध्यम से वस्तु का जो निर्धारण चेतना (आत्मा) करती है, वह बहुधा पूर्णरूप १. देखें, गणधरवाद (पं. दलसुख मालवणिया) की प्रस्तावना, पृ.११८ २. देखें, जैनतत्त्वकलिका में इस आशय का मन्तव्य पृ. ३०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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