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________________ ४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जैसे- समस्त प्रकार के दूध का अस्तित्व स्वतःसिद्ध है। आक का दूध, गाय का दूध भैंस का दूध एवं बकरी, ऊँटनी, भेड़ आदि के दूध का अस्तित्व तो संसार में प्रसिद्ध है। परन्तु उस-उस दूध के पृथक्-पृथक वस्तुत्व का निर्णय करना तथा उस-उस दूध के गुण-अवगुण का, लाभ-हानि का, हेय-उपादेय का तथा कौन-सा दूध किस व्यक्ति के लिए कहाँ, किस समय, किस परिस्थिति में, कितनी मात्रा में, कितना उपयोगी या अनुपयोगी है ? इस प्रकार का मूल्य-निर्णय करना भी आस्तिक तत्त्वज्ञों का कर्त्तव्य है। इस खण्ड में कर्मसिद्धान्त का मूल्य-निर्णय जैन कर्मविज्ञान के अनुसार पिछले खण्डों में हम कर्म के अस्तित्व और वस्तुत्व (स्वरूप) को सिद्ध कर चुके हैं। अब इस खण्ड में हम कर्म-विज्ञान का मूल्य-निर्णय करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में हम कर्म की हेयता, ज्ञेयता और उपादेयता अथवा उपयोगिता और अनुपयोगिता का चिन्तन प्रस्तुत करना चाहते हैं। अर्थात्-कौन सा कर्म, कहाँ, कितनी मात्रा में, किस समय, कितना और कैसे उपयोगी है, अथवा अनुपयोगी हैं, या हेय है, ज्ञेय है या उपादेय है? कर्मविज्ञान की दृष्टि से कौन सा कर्म गाढ़बन्ध वाला या शिथिलबंध वाला अथवा अल्पस्थिति वाला, दीर्घस्थिति वाला, किस-किस कारण से, कैसे हो सकता है ? इस प्रकार कर्म का मूल्य-निर्णय तीर्थंकरों और जैनाचार्यों ने किया है। समग्र गणधरवाद में कर्म के अस्तित्व, वस्तुत्व एवं विशेषत्व का निर्णय किसी भी वस्तु के अस्तित्व का निर्णय तो स्वतःसिद्ध होता है, फिर भी सभी आस्तिक दर्शनों ने कर्म का या कर्मसिद्धान्त का अस्तित्व एक या दूसरे प्रकार से माना है और सिद्ध भी किया है। परन्तु उसका मूल्य-निर्णय जैन कर्मविज्ञान से सम्बन्धित शास्त्रों और ग्रन्थों में यत्र-तत्र मिलता है। सारा गणधरवाद कर्मों के अस्तित्व, वस्तु तथा मूल्यनिर्णय से सम्बन्धित है। प्रथम गणधर इन्द्रभूति ने कर्म के बन्धकर्ता जीव (आत्मा) के विषय में प्रश्न उपस्थित किया है। जिसका समाधान भगवान् महावीर ने विविध युक्तियों एवं प्रमाणों से किया है। द्वितीय गणधर ने तो कर्म के अस्तित्त्व के सम्बन्ध में ही प्रश्न उठाया है, जिसका समाधान भगवान ने कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के अतिरिक्त कर्म अदृष्ट, मूर्त, परिणामी और विचित्र है, अनादि काल से सम्बद्ध है, इत्यादि रूप से कर्म का वस्तुत्व एवं मूल्य-निर्णय भी सिद्ध कर दिया है। चौथे गणधर के साथ शून्यवाद या चतुर्भूतवाद से सम्बन्धित चर्चा के दौरान भी आनुषंगिक रूप में कर्म के अस्तित्व एवं वस्तुत्व की चर्चा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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