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________________ कर्मों का फलदाता कौन ? २६१ क्योंकि अदृष्ट तो दूसरे की प्रेरणा के बिना ही स्वयोग्यता एवं क्षमता के अनुसार जीवों को सुख-दुःख प्राप्त कराता है। ईश्वर को जीवों के अदृष्ट का कर्ता मानना भी उचित नहीं, क्योंकि जीव स्वयं अपने पुण्य-पाप आदि कर्मों का कर्ता है। (४) ईश्वर-प्रेरणा से जीव शुभाशुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है, यह मान्यता भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि जीव पूर्वोपार्जित पुण्य पापकर्मों के उदय होने पर शुभाशुभ परिणामानुसार ही कार्य में प्रवृत्त होता है। (५) ईश्वर को कर्मफलदाता मानने से उसे कुम्भकार की तरह शरीरधारी कर्ता मानना पड़ेगा। कुम्भकार तो शरीरी है, किन्तु ईश्वर अशरीरी है। वह किसी को दिखाई नहीं देता। अतः मुक्त आत्मा की तरह अशरीरी ईश्वर किसी के कर्मों का फलदाता नहीं हो सकता। (६) ईश्वर को शुभाशुभ कर्मों का फलदाता मानने पर किसी को निन्दनीय कार्य का दण्ड नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि वैसे कार्यों के लिए उन जीवों को ईश्वर ने ही प्रेरित किया है। मगर उन जीवों को हत्या आदि कुकर्मों का दण्ड मिलता है। इसलिए ईश्वर को किसी को शुभाशुभ कर्मों का फलदाता मानना अनेक दोषों से परिपूर्ण और न्यायोचित नहीं है।' इन सब तथ्यों के प्रकाश में ईश्वर कर्मफलदाता सिद्ध नहीं होता, कर्म ही अपना फल स्वयं देते हैं। . १. (क) जैनदर्शन में आत्म विचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से सारांश ग्रहण पृ. २१८-२१९ (ख) षड्दर्शन समुच्चय टीका का0 ४६ पृ. १८२-१८३ (ग) विस्तृत विवेचन के लिए देखें-अष्टसहनी, प्रमेय कमल मार्तण्ड, स्याद्वाद-मंजरी आदि ग्रन्थ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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