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________________ पूर्व प्रकरण में हमने विभिन्न दृष्टियों से ईश्वर द्वारा कर्मफल- प्रदातृत्व का खण्डन किया है, जिससे यह सिद्ध हो गया कि जीव को उसके कर्मों का फलदाता ईश्वर या कोई अन्य शक्ति नहीं हो सकती। आत्मा स्वयं शुभाशुभ कर्म करता है, और स्वयं ही कर्म के प्रभाव से अर्थात्-कर्मों की फलोत्पादनशक्ति से उसका फल भी भोग लेता है । इस दृष्टि से कर्म स्वयं ही जीव को फल प्रदान करता है, दूसरे शब्दों में कहें तो -कर्म स्वयं ही जीव को अपने-अपने कृतकर्म का फल भुगवाता है। जड़ कर्म अपना फल कैसे देता है? ३ कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? प्रश्न हो सकता है-कर्म तो पुद्गल हैं, जड़ हैं, अजीव हैं, चेतनारहित हैं, और ज्ञान तो जीव को होता है; क्योंकि वही उसका गुण है, अजीव कर्मों को ज्ञान तो होता नहीं। अतः कर्म को न तो अपने शुभ या अशुभ होने का ज्ञान है, और न ही उसे यह ज्ञान है कि इस कर्म का यह फल है, उस कर्म का वह, या यह कर्म अच्छा है तो उसका फल अच्छा देना चाहिए तथा वह कर्म बुरा है तो उसका फल बुरा देना चाहिए। संक्षेप में, कर्मों को शुभ या अशुभ रूप में फल प्रदान करने का कोई ज्ञान नहीं होता। स्पष्ट शब्दों में कहे तो - जड़ कर्मों को क्या पता है - किस प्राणी को, कहाँ, कब, किस रूप में और कैसे सुख-दुःख रूप फल देना है ? ऐसी स्थिति में जब उन जड़ कर्मों को यह सब ज्ञान ही नहीं है, तब भला वे कैसे यथोचित और यथाव्यवस्थित रूप में जीव को यथासमय उसके द्वारा कृत शुभ या अशुभ कर्म का फल दे सकेंगे ?” कर्म ज्ञानशून्य अवश्य है, शक्ति शून्य नहीं प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, सामयिक है, परन्तु जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञ तीर्थंकरों, आचार्यों एवं विशेषज्ञ मुनियों तथा मनीषियों ने इस प्रश्न का बहुत ही सुन्दर और युक्तिसंगत, अनुभूतियुक्त एवं श्रुतियुक्त समाधान दिया है। १. ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण पृ. ४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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