SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) इसीलिए निष्कर्ष और उपदेश के रूप में आचार्य अमितगति कहते हैं-संसारी देहधारी जीव अपने ही किये हुए कर्मों का फल पाते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई किसी को कुछ भी (कर्मफल) देता-लेता नहीं है। हे भद्र ! अनन्यचित्त होकर इस विचारधारा पर अटल निष्ठा रखकर यही सोचना चाहिए तथा दूसरा कोई कुछ (कर्मफल) दे देता है, इस बुद्धि (विचारधारा) का त्याग कर देना चाहिए।' तात्पर्य यह है कि संसारी जीवों को कर्मों का फल-प्रदाता ईश्वर या तथाकथित कोई भी विशिष्ट चेतन-तत्त्व सिद्ध नहीं होता। कर्मकर्ता जीव को कर्म अपना फल नियमानुसार स्वयं ही प्रदान करते हैं। जीव को अपने कृत-कर्मों का फल स्वतः ही देर-सबेर से प्राप्त होता रहता है; और जब तक वह नये कर्मों का निरोध और पुराने कर्मों का क्षय स्वतः नहीं कर लेता, तब तक स्वतंत्र रूप से कर्म करता रहता है, और उनका फल भी भोगता रहता है। ईश्वर का कर्म करने की प्रेरणा करने में और उन कर्मों का फल भुगवाने में कोई हाथ नहीं है। ईश्वर कर्मफलदाता नहीं : एक दृष्टि में ईश्वर को कर्मफल-दाता मानने पर निम्नलिखित दोषाप्तियाँ आती हैं (१) यदि ईश्वर को पूर्वजन्मकृत कर्मों के शुभाशुभ फल का प्रदाता माना जाए तो जीव के द्वारा स्वयं किये गए कर्म व्यर्थ हो जाएँगे। (२) यदि ईश्वर जीवों को कर्मफलप्रदान उनके पुण्य-पाप के अनुसार करता है तो ईश्वर को स्वतंत्र कहना व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि वह फल-प्रदान करने में अदृष्ट की सहायता लेता है। जीवों को अपने अदृष्ट के अनुसार (शुभाशुभ कर्मोदय से) तो स्वतः सुख-दुःख प्राप्त हो जाता है फिर ईश्वर की फलदाता के रूप में कल्पना करना व्यर्थ है। (३) अदृष्ट के अचेतन होने से किसी बुद्धिमान् की प्रेरणा से ही ईश्वर फल दे सकता है, यह कथन भी उचित नहीं है। फिर तो हम लोगों की प्रेरणा से भी अदृष्ट फल दे सकता है। अतः ईश्वर-प्रेरणा से अदृष्ट के द्वारा फल देने की बात भी ठीक नहीं है। -चाणक्य नीति १. (क) वही, पृ.७६ (ख) स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते।। (ग) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन। विचारयन्नेव मनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम्॥ - सामायिक पाठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy