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कर्मों का फलदाता कौन ? २५९
जिससे बुरे कर्म की इच्छा न रहने पर भी वे मोहाविवश ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि उन्हें अपने कर्मानुसार स्वतः फल मिल जाता है।
कर्म करना और फल न चाहना, ये दोनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं। केवल चाह न होने से ही कृतकर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता। जैसे तीर छूट जाने पर उसे वापस लौटाना तीर छोड़ने वाले के वश की बात नहीं है, वैसे ही कर्म बन्ध जाने पर तथा उदय में आने पर उसका फल भोगना ही पड़ता है। जब तक कर्म संचित (सत्ता में ) रहता है, तब तक कर्मकर्त्ता चाहे तो उसके फल में परिवर्तन कर सकता है। यह अलग बात है। सामग्री एकत्रित होने पर कार्य स्वतः होने लगता है। जैसे-एक मनुष्य धूप में खड़ा है, गर्म चीज खा रहा है, फिर वह चाहे कि पिपासा न लगे तो उसकी पिपासा रुक नहीं सकती, वैसे ही कर्म करते समय तीव्र-मन्द जैसे भी रागादियुक्त परिणाम होते हैं तदनुसार जीव में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं, जिनसे प्रेरित होकर कर्मकर्त्ता जीव स्वयं बरबस कर्मफल भोगता है, उसके फलप्रदान में ईश्वर की कोई प्रेरणा नहीं होती ।"
जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं ही फल पाता है, कर्म ही फलदाता है
अतः जैनकर्मविज्ञान का अकाट्य सिद्धान्त है कि जीव जैसे कर्म करने में स्वतंत्र है, वैसे ही वह उस कर्म का फल भोगने में भी स्वतंत्र है, पराधीन नहीं; अर्थात्-ईश्वर या दूसरे के अधीन नहीं। मकड़ी स्वयं जाला बुनती है और स्वयं ही उसमें फंस जाती है। क्या मकड़ी को जाले में फंसाने के लिए किसी दूसरे नियामक की आवश्यकता रहती है ? शराबी शराब पीता है तो क्या शराबी को शराब के सिवाय दूसरी कोई शक्ति आती है• नशा चढ़ाने के लिए? शराब को वह स्वयं ही पीता है, तभी शराब उसे नशा चढ़ाती है और शराब के नशे से मुक्त भी वही हो सकता है ? मिर्च खाने वाला व्यक्ति स्वयं ही मिर्च खाता है, स्वयं मिर्च ही खाने वाले का मुहँ जलाती है, तो क्या मुँह जलाने के लिए और कोई आता है मिर्च के सिवाय ?
इसीलिए चाणक्य नीति में कहा गया है - "आत्मा स्वयं (अच्छा-बुरा) कर्म करता हैं, और स्वयं ही उसका फल भोगता है। स्वयं ही कर्मवश संसार में परिभ्रमण करता है और स्वयं ही कर्मों से मुक्त होता है । "
जैनाचार्य अमितगति सूरि ने भी ठीक ही कहा है- “पहले अपने द्वारा कृतकर्म का शुभाशुभ फल स्वयं ही जीव पाता है, स्वतः ही भोगता है। कोई देवी, देव, नियति, ईश्वर या अन्य कोई समर्थ व्यक्ति कर्मफल या कर्मफल के रूप में सुख-दुःख देता है, ऐसा मानने पर स्वयं कर्म करना व्यर्थ सिद्ध होता है।"
१. कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण, पृ. ७५
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