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कर्मों का फलदाता कौन ? २५१
कर्मफलदाता मानने पर ये और इस प्रकार की अन्य आशंकाएँ उपस्थित होती हैं, जिनका सन्तोषजनक समाधान नहीं मिलता।
निष्कर्ष यह है कि ईश्वर को कर्मफलदाता मानने वालों के पास पूर्वोक्त दोषापत्तियों, अनुपपत्तियों, विसंगतियों, आक्षेपों, आरोपों और ईश्वर पर आने वाले दोषों का कोई भी युक्ति-तर्कसंगत, बुद्धिसंगत, शास्त्रसंगत, अनुभवयुक्त एवं अन्धविश्वासरहित या संतोषजनक कोई भी समाधान नहीं है। अतः सांसारिक जीवों को उनके द्वारा कृतकों का फलदाता कोई भी ईश्वर या अन्य दैवी शक्ति नहीं है। कर्मों का फल कर्मविज्ञान के गूढ़ (अव्यक्त) नियमों के अनुसार स्वतः मिल जाता है।' कर्मफल निष्फल नहीं, अवश्य सफल होता है
___ एक शंका ईश्वरकर्तृत्ववादियों द्वारा यह उठाई जाती है कि मनुष्य के द्वारा किया गया कर्म कई बार निष्फल प्रतीत होता है, उसका कोई भी कर्म प्रायः सफल नहीं होता। परन्तु पूर्वोक्त तथ्यों को जानने पर यह भी स्पष्ट हो गया कि ईश्वर को कर्मफलदाता मानने पर कितनी दोषापत्तियाँ उपस्थित हो जाती हैं ? केवल इतनी-सी बात के लिए ईश्वर को बीच में लाकर खड़ा करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है कि कर्मफल देर से मिलता है। कर्म करने के बाद उसके फल का एक नियम है। उसी के अनुसार फल देर-सबेर से अवश्य मिलता है। आज का बोया हुआ बीज क्या आज ही फल दे देता है ? क्या जमाये हुए दूध का तत्काल दही बन जाता है ? मुर्गी के द्वारा अण्डा देते ही क्या तत्काल उसमें से मुर्गी या मुगा निकल आता है? यह तो अनुभवसिद्ध बात है कि व्यवसाय, व्यायाम, कृषि, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य तत्काल फलित नहीं होते, उन्हें सफल होने में काफी समय लगता है। क्या इससे उन-उन कार्यों के प्रति मनुष्य अविश्वास करके चुपचाप बैठ जाता है? क्या वह उन-उन सत्कार्यों को प्रारम्भ नहीं करता? इसी प्रकार कर्मों का फल भी देर-सबेर से ही सही, मिलता अवश्य है। इसमें कोई सन्देह नहीं। प्रत्येक कर्म का फल जीव को स्वयं भोगना पड़ता है। संसार में पापात्मा सुखी और धर्मात्मा दुःखी दिखाई देते हैं : इसका समाधान
एक ओर हिंसा आदि पाप कर्म करने वाले दुरात्मा, क्रूर एवं पापकर्मा खूब . समृद्ध, सुखी और साधन सम्पन्न दिखाई देते हैं; जबकि दूसरी ओर सज्जन एवं धर्मात्मा मानव न्याय, नीति एवं धर्म के पथ पर चलते हैं, आध्यात्मिक जीवन से उच्च हैं, फिर भी
१. (क) कर्मवाद : एक अध्ययन, से भावांश ग्रहण, पृ. ७४
(ख) ज्ञान का अमृत, से भावांश ग्रहण प्र. ७३ २. कर्म मीमांसा (स्व. युवाचार्य मधुकर मुनि) से भावांश ग्रहण, पृ. ४0
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