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________________ २५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) सर्वदर्शी परमात्मा को अपने पूजास्थानों (मंदिर, मस्जिद, चर्च, देवालय, गुरुद्वारा आदि) तथा धर्मस्थानों का एवं पुजारियों और धार्मिक भक्तों का जरा भी ख्याल नहीं आता। तथाकथित परमात्मा की ऐसी दशा देखकर उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति या इबादत कैसे रह सकती है। उनकी दृष्टि में ऐसा परमात्मा सम्मानित और पूजनीय कैसे रह सकता है ? ईश्वर द्वारा कर्मफल सजा के रूप में नहीं, दूसरों के घात रूप में मिलता है एक बात और, जो लोग ईश्वर को कर्मफलदाता मानते हैं, उन्हें हमारी विचारशक्ति कहती है कि किसी भी विचारशील फलदाता को किसी व्यक्ति को उसके बुरे कर्मों का फल ऐसा देना चाहिए, जो उसकी सजा के रूप में हो, न कि दूसरों को उसके द्वारा सजा दिलवाने के रूप में। किन्तु तथाकथित ईश्वर घातकों (क्रूर मानव, सिंह, सर्प, चीता आदि) से दूसरे का घात कराता है, क्योंकि उसके जरिये उसे दूसरे को सजा दिलवानी है। किन्तु घातक जिस दुर्बुद्धि के कारण दूसरे का घात करता है, उस बुद्धि को दुष्ट करने वाले कर्मों का उसे क्या फल मिला? इस फल के द्वारा तो दूसरे को सजा भोगनी पड़ी। ईश्वर को फलदाता मानने से ऐसी अनेक दोषापत्तियाँ खड़ी होती हैं अतः ईश्वर को फलदाता मानने से ये और इस प्रकार की कई अनुपपत्तियाँ एवं विसंगतियाँ खड़ी होती हैं। एक अनुपपत्ति यह भी है कि किसी कर्म का फल कर्ता को तुरंत मिल जाता है और किसी का कुछ समय के बाद और किसी को अपने कर्मों का फल कुछ वर्षों के बाद। कुछ लोगों को अपने कर्म का फल दूसरे जन्मों में मिलता है। एक ही सरीखे एक ही समय में किये जाने वाले दो व्यक्तियों के समान कर्म का फल एक को शीघ्र ही और अच्छा मिलता है, दूसरे को देर से और बुरा मिलता है। इस अन्तर का कारण क्या है ? जबकि फलदाता ईश्वर एक ही है ?३ एक ही सदृश एवं एक ही समय में किये हुए कर्म का फल देने में यह पक्षपात, विसंगति या विषमता क्यों? क्या ईश्वर भी खुशामद, चापलूसी, प्रशंसा, स्तुति या पूजा-पत्री की रिश्वत के आगे झुक जाता है ? क्या परमात्मा मिन्नत या मान्यता करने न करने पर किसी को उसके पापकर्म का फल कम और किसी को अधिक दे देता है ?क्या परमात्मा के यहाँ भी रिश्वतें चलती हैं ?जो किसी को पहले और किसी को पीछे कर्मों का फल भुगवाता है? या कर्मफल में न्यूनाधिकता कर देता है?अतः परमात्मा की १. वही, सारांश ग्रहण, पृ. ६७ २. पंचम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. १७ ३. वही, पृ. १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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