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________________ २५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) वेदःखी, दरिद्र, श्रीहीन एवं साधनहीन दिखाई देते हैं। अथवा चोरी करता है एक और पकड़ा जाता है दूसरा; अन्याय-अत्याचार करता है एक और न्याय-नीति पर चलने वाला सदाचारी दण्डित होता है। इस प्रकार के विषम फलयुक्त दृश्य संसार में देखे जाते हैं, मगर उनके पीछे कई रहस्य और अकल्पनीय गुत्थियाँ होती हैं, परन्तु इतनी-सी बात से यह नहीं कहा जा सकता अथवा इस प्रकार की अनास्था व्यक्त करना अनुचित है कि कर्मफल स्वतः न्यायोचित या यथोचित मिलता है ? या कर्मफल मिलता ही नहीं, यह भी कहना अधीर व्यक्तियों की अनास्था का सूचक है। ___जैनकर्म-विज्ञान-मर्मज्ञ आचार्यों ने इस गुत्थी को, बहुत ही सुन्दर और युक्तियुक्त ढंग से सुलझाया है। उनका कहना है-कर्म की गति अतीव गहन है। बड़ी-बड़ी विलक्षणताएँ इसमें छिपी हुई हैं। जैनकर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने बन्ध के चार प्रकार बताकर उनसे युक्त विभिन्न दृष्टियों एवं अपेक्षाओं से तथा योग, उपयोग, लेश्या, इन्द्रिय, काय, वेद, कषाय आदि की तीव्रता-मन्दता, एवं भावों और अध्यवसायों के उतार-चढ़ाव से कों के फल में अगणित प्रकार की तरतमता बताई है। उन्हें समझे बिना तथा उनके रहस्यों को हृदयंगम किये बिना यों ही कह देना कि कर्म का फल यथोचित और यथान्याय नहीं मिलता, उतावला निर्णय है। पापात्मा की सम्पन्नता, पुण्यात्मा की विपन्नताः पापानुबन्धी पुण्य तथा पुण्यानुबन्धी पाप के कारण ___ जैन कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ आचार्यों ने कहा कि हिंसक व्यक्ति की समृद्धि और वीतराग भगवान की पूजा-भक्ति करने वाले भक्त साधक की दरिद्रता दूसरे शब्दों में कहें तो धर्मात्मा आदि का दरिद्र-दुःखी तथा पापात्मा आदि का सम्पन्न-सुखी दिखाई देना, क्रमशः उनके पापानुबन्धी पुण्य, तथा पुण्यानुबन्धी पापकर्म का फल है। पापात्मा व्यक्ति के द्वारा पूर्वकृत दान-परोपकार आदि पुण्य कार्यों का फल वर्तमान में उसकी सुख सम्पन्नता के रूप में देखा जाता है, परन्तु उसके द्वारा वर्तमान में पुण्यफल का दुरुपयोग किया जाना हिंसा आदि पापकर्म भविष्य के लिए पापानुबन्धी है, पापकर्म-फल-प्रदाता है। इसी प्रकार पुण्यात्मा व्यक्ति के द्वारा पूर्वकृत हिंसा आदि पापकर्म का फल वर्तमान में उनकी दुःख-दरिद्रता आदि के रूप में देखा जाता है, परन्तु वर्तमान में उसके द्वारा किये जाने वाले धर्माचरण, सदाचार-पालन, तथा सेवा-परोपकार आदि पुण्यकर्म का फल भविष्य में पुण्यानुबन्धी है, पुण्यकर्मफल-प्रदाता है। १. (क) कर्मवाद : एक अध्ययन, से भावांश ग्रहण पृ. ६८ (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-कर्मविज्ञान प्रथम खण्ड का “कर्म-अस्तित्व के प्रति ____ अनास्था अनुचित" निबन्ध। पृ. १८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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