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________________ २४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) है कि उन दुष्कर्मियों को दुष्कर्म करने का कठोर दण्ड देना पड़ेगा और कठोर दण्ड मिलने पर वह रोएगा, पछताएगा, गिड़गिड़ाएगा, कष्ट पाएगा, किन्तु यह जानते-बूझते भी तथा दयालु और शक्तिशाली होते हुए भी उन दुष्कर्मकर्ता जीवों को पापकर्म करने से पहले ही क्यों नहीं रोक देता ? पापकर्म करने के लिए तत्पर व्यक्ति का बलात् हाथ क्यों नहीं पकड़ लेता ? किन्तु तथा कथित परमात्मा पहले तो अपने मनोविनोद, लीला या शासन की महत्त्वांकाक्षा को पूर्ण करने हेतु पापकर्मियों और अपराधियों को खुलकर खेलने दे, उन्हें अराजकता फैलाने की खुली छूट दे दे, उसके पश्चात् दुष्कर्म के कठोर फल के रूप में जिंदगी भर उन पर दुःखों का पहाड़ लाद दे । यह कहाँ की शासन व्यवस्था है ? यह कौन-सी कर्त्तव्यपरायणता एवं दयालुता है ?" एक न्यायाधीश भी जब किसी का न्याय करता है तो अल्पज्ञ होने के कारण पहले अपराधी के अपराध की जांच-पड़ताल करता है। उसके अपराध को साबित करने के लिए साक्षियाँ और गवाहियाँ लेता है, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान लेता है। उस पर व्यवस्थित ढंग से केस (मुकदमा चलाया जाता है। सब प्रकर से वास्तविकता की छानबीन करने पर तथा गवाहों की गवाहियों से अपराधी का अपराध प्रमाणित हो जाने पर दण्डव्यवस्था करता है। यही कारण है कि उसे फैसला देने और दण्ड व्यवस्था करने में काफी समय लग जाता है। परन्तु तथाकथित ईश्वर तो सर्वज्ञ- सर्वशक्ति सम्पन्न है, वह तो सभी अपराधियों के भूत-भविष्य और वर्तमान की सब घटना, मनोवृत्ति और प्रवृत्ति को जानता है, उसे तो किसी के अपराध को साबित करने के लिए किसी की साक्षी या गवाही की आवश्यकता ही नहीं है; फिर वह जीवों को उनके कर्म का फल देने में इतना विलम्ब क्यों करता है? क्यों नहीं अपराध होते ही तत्काल उस दुष्कर्म का फल भुगवा देता है ? फौरन दण्ड की व्यवस्था क्यों नहीं करता? उसकी सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता कहाँ चली जाती है? एक बात यह भी है कि न्यायाधीश न्यायासन पर बैठकर अपराधी को अपने सामने बुलाता है, उसका अपराध प्रमाणित हो जाने पर उससे पूछता है और कहता है"तुमने अमुक अपराध या चोरी या हत्या का दुष्कर्म किया है या अमुक व्यक्ति को धोखा दिया है, इसलिए तुम्हारे इस अपराध की यह सजा दी जा रही है । " ईश्वर सारे संसार के कर्मफल का नियन्ता और दण्ड का व्यवस्थापक है, इसलिए परम न्यायाधीश है। मगर संसारी जीवों को उनके दुष्कर्मों का फल देते समय अथवा उनके अपराधों की दण्ड व्यवस्था करते समय अपराधी व्यक्तियों से कभी प्रत्यक्ष या 9. वही, भावांश ग्रहण, पृ. ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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