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________________ कर्मों का फलदाता कौन ? २४७ परोक्ष में भी आकर कभी कहता देखा नहीं जाता कि तुमने अमुक अपराध या पाप किया है, अतः तुम्हारे उस पाप या अपराध का यह दण्ड तुम्हें दिया जाता है। ऐसा करने पर ही उसकी परम न्यायाधीशता सार्थक होती; और संसार के अबोध अथवा अज्ञानी जीव उससे नसीहत लेते, उन पापकर्मों को करने से पहले सोचते-विचारते और उनसे बचते या सावधान रहते कि यदि ऐसा पापकर्म फिर करेंगे तो आगे फिर दण्ड भुगतना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में अपराधी या दुष्कर्मकर्ता लोग यह समझ जाते हैं, कि ईश्वर जैसी कोई भी सर्वोपरि शक्ति हमें कुछ कहने-सुनने वाली नहीं है, न ही कोई दण्ड व्यवस्था दिखाई देती है, सरकारी दण्डव्यवस्था से भी वे फरार होकर, रिश्वत देकर जैसे-तैसे बच जाते हैं और जैसे-तैसे स्वच्छन्द रूप से बेखटके पापकर्म करते रहते हैं। ईश्वर जैसा सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ जानता-देखता और दण्ड देने में समर्थ पुरुष भी आँख मिचौनी या उपेक्षा करके बैठा रहे, यह कैसी न्यायशीलता या शक्तिमत्ता है ? ईश्वरकर्तृत्ववादियों का कहना है कि ईश्वर तो जीवों के अपने किये हुए कर्मों के अनुसार उनके शरीरादि का निर्माण करता है, जीवों के पूर्वकृत-कर्मानुसार ही उन्हें फल देता है, अपनी इच्छानुसार नहीं। ऐसी स्थिति में वह ईश्वर भी स्वतंत्र और स्वेच्छानुसार कुछ नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा भी स्वंतत्र नहीं, परतन्त्र है, वह भी स्वेच्छा से किसी भी प्राणी का बाल भी बांका नहीं कर सकता। तब तो वह (परमात्मा) भी पराधीन है, परतंत्र है। ___ जो सर्वथा स्वतंत्र हो, स्वाधीन हो, स्वेच्छा से कार्य करने की क्षमता रखता है, वही सच्चे माने में परमात्मा कहलाने योग्य है। जो परिवार, समाज, पक्षपात, स्वार्थ आदि के बन्धनों में जकडा हआ हो, जिसे अपने आत्मिक ऐश्वर्य की उपेक्षा करके सांसारिक जीवों को कर्मफल देने के कर्म-परतंत्रता वश कार्य में, पचड़े में पड़ा रहना पड़ता हो, वह परमात्मा सर्वतंत्र-स्वतंत्र परमात्मा कैसे हो सकता है? तथाकथित परमात्मा तो जीवों के द्वारा कृत कर्मों के अधीन होने से परमात्मा भी कहलाने योग्य नहीं यदि परमात्मा अपनी इच्छा से कर्मों के फल में हेराफेरी करने लग जाए तब भी ईश्वर की न्यायाधीशता, न्यायिकता और प्रामाणिकता भी खतरे में पड़ जाएगी। अतः परमात्मा को कर्मफलप्रदायक न मानना ही युक्तियुक्त है।' १. ज्ञान का अमृत से सारांश उद्धृत पृ. ६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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