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________________ २४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) बोधि प्राप्त नहीं होगी। अतः यदि तू दूसरे के हानि लाभ की चिन्ता नहीं कर सकता तो कम-से-कम अपने हानि-लाभ की तो चिन्ता कर। किन्तु पापात्मा मानव परम हितैषी संत की बात को सुनी-अनसुनी करके, ठुकरा देता है, और प्रायः धृष्टता पूर्वक कह बैठता है-“आप परमात्मा की माया को नहीं समझते, इसीलिए तो आप हमें पापकर्मों से डरने की बात कह रहे हैं"।' हमारे भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं, संसार के भाग्य विधायक हैं, परिपालक हैं और सुखदाता हैं। हमारे भाग्य का निर्माण भी उन्होंने ही किया है ? उन्हीं की कृपा से हमें सारे सुख-साधन मिले हैं। हमारे जीवन में ऐश्वर्य और वैभव के मंगलमय बाद्य बज रहे हैं। समाज में हमारी जो प्रतिष्ठा है, वह उन्हीं परमात्मा की परमकृपा का फल है। परिवार में और समाज में मौज बहार है, वह सब उसी प्रभु के अनुग्रह की बदौलत है। मेरे सभी कार्यों के पीछे उस महाप्रभु की कृपा है कि मैं सदैव प्रसन्नता और सुख-सुविधा के झूले में झूलता हूँ। मैं बिना किसी हिचक के जो चाहता हूँ, जैसा चाहता हूँ; कर लेता हूँ। भय और संकोच का तो मेरे जीवन में बिलकुल नामोनिशान भी नहीं है। आप कहेंगे-परमात्मा कब कहता है-“बुरे काम कर, पापकर्म कर।" इसके उत्तर में मेरा (पापी का) कहना यह है कि मैं बुराइयाँ, पापमय प्रवृत्तियाँ करने से सकुचाता नहीं हूँ, यह सब आपकी (संतपुरुषों की) दृष्टि से मेरी दुर्बुद्धि-खराब बुद्धि के कारण होता है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने के कारण ही मेरा सोचने-समझने और आचरण करने का ढंग बिलकुल गलत है। संसार में होने वाली समस्त पापमय प्रवृत्तियों और बुराइयों का मूल कारण बुद्धि की विकृति ही है। और बुद्धि खराब होती है-भाग्य सेअशुभ कर्मफल से। भाग्य को अच्छा या बुरा बनाने वाला कौन है? वही परमपिता परमात्मा है। जीवों का भाग्य-निर्माण करते समय दुर्बुद्धिव-घातक मानव क्यों पैदा किये? ___ और आप (संत) यह भी जानते हैं कि परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, उसके ज्ञाननेत्रों से संसार का कोई भी जीव या जड़ पदार्थ ओझल नहीं है। वे प्रत्येक जीव के भाग्य को निर्माण करते समय यह जानते हैं कि इस जीव के भाग्य का ऐसा निर्माण कर रहा हूँ जिससे इसे कुबुद्धि या सुबुद्धि प्राप्त होगी। वे यह सब जानते हुए भी कि इस जीव का ऐसा भाग्य निर्माण कर रहा हूँ, जिससे इसे कुबुद्धि, दुष्टबुद्धि या पापमय बुद्धि प्राप्त होगी और उसके कारण यह हत्या, चोरी, डकैती, लूट-मार, ठगी, तस्करी, बेईमानी, अनीति आदि पापकर्म करेगा, निर्दोष लोगों को सताएगा, विश्वासघात करेगा, धर्मस्थानों की पवित्रता को नष्ट करेगा, सतियों का शील लूटेगा आदि। १. वही, सारांश उद्धृत पृ. ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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