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________________ कर्मों का फलदाता कौन ? २४१ उनकी बुद्धि खराब है। चूँकि ईश्वरकर्तृत्ववादियों के मतानुसार जीव कर्म करने में स्वतंत्र नहीं है। ऐसी स्थिति में हत्यारे, चोर, डाकू आदि परविघातक के कर्म उनकी किसी दुर्बुद्धि के परिणाम हैं। और बुद्धि की दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्म का फल होना चाहिए, क्योंकि जीव कर्म से बंधा है और जीव की बुद्धि होती है - कर्मानुसारिणी । कर्म का फल ईश्वराधीन मानने पर पूर्वोक्त पर घातक लोगों की दुर्बुद्धिरूप कर्मफल का उत्पादक ईश्वर को ही माना जाएगा। सांसारिक जीवों का भाग्यविधाता ईश्वर होने से पाप प्रवृत्तिप्रयोजक भी ईश्वर है यदि बुद्धि खराब होने का कारण उन-उन जीवों के भाग्य की विपरीतता मानी जाए तो भी प्रश्न उठता है कि उनका भाग्य खराब बनाया किसने ? संसार के जीवों के भाग्यविधाता तथाकथित ईश्वर ने ही तो मनुष्यों और पशुओं के भाग्य को खराब बनाया है, जिसके कारण उन्हें धर्म, नीति और व्यवहार से विरुद्ध कार्य करने पड़ते हैं। ईश्वर ने स्वयं उन-उन पापकर्मी जीवों का भाग्य खराब बनाया, इसी कारण ही उन्हें विवश होकर वैसे पापमय कार्य करने पड़ते हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो-ईश्वर को संसार के जीवों का भाग्य-निर्माता या भाग्य-विधाता मानने पर संसार के समस्त प्राणियों की अशुभ प्रवृत्तियों और अधम कार्यों की जिम्मेवारी ईश्वर पर आ जाती है। और दुष्कृत्य या पापमय प्रवृत्तियाँ करने वाले जीव बिलकुल अलग-थलग एवं निर्दोष रह जाते हैं। उन्हें पापी या अधर्मी नहीं माना जा सकता। अतः ईश्वर को संसार के जीवों का भाग्य विधाता तथा कर्मफल दाता मानने में ये सब आपत्तियाँ और अनुप्रपत्तियाँ आकर घेर लेती हैं। ' पापी पापकर्म करने में ढीठ होकर ईश्वर की दुहाई देता है इनके अतिरिक्त एक भयंकर आपत्ति और आ खड़ी होती है कि जो पापी मनुष्य अहर्निश पापकर्म में रत रहता है, उसे कोई हितैषी संत समझाने जाए कि तू इतने घोर पापकर्म क्यों करता है ? इन पापकर्मों की सजा तुझे कितनी भयंकर मिलेगी ? क्या तुझे • परमपिता परमात्मा का कोई डर नहीं है ? परमात्मा के दरबार में जब तेरे पापकर्मों की जाँच-पड़ताल होगी, तब तेरे इन पापमय कारनामों पर नाराज होकर परमात्मा तुझे भयंकर दण्ड के रूप में घोरातिघोर नरक में भेज देंगे, जहाँ तू रातदिन दुःखों और यातनाओं को रो-रोकर भोगता रहेगा । अथवा वे तुझे सूअर, कूकर, गर्दभ या बकरे आदि किसी पशुयोनि या तिर्यंच योनि में धकेल देंगे, जहाँ तुझे किसी प्रकार की सम्यक् १. ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) से भावांश ग्रहण पृ. ६१,५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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