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________________ २४0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) होते हैं। अतः कसाई, हत्यारा, लम्पट, चोर, डाक आदि व्यक्ति भी ईश्वर की आज्ञा या प्रेरणा के अनुसार उन-उन जीवों के पूर्वकृत कर्मों का फल भुगवाते हैं। ईश्वर ने ही पहले उनके द्वारा पूर्ववत् कर्मों का यही फल निश्चित किया होगा, तभी तो वे सब ये कार्य कर रहे हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो ईश्वर की प्रेरणा से ही हत्यारा किसी जीव की हत्या करता है. चोर किसी की सम्पत्ति चराता है, व्यभिचारी किसी स्त्री पर बलात्कार कर रहा है, शिकारी किसी वन्यपशु का वध कर रहा है। ईश्वर की आज्ञा का पालन करने वाले या ईश्वर-प्रेरणा से काम करने वाले भला दोषी या अपराधी कैसे हो सकते हैं ? ईश्वर को न्यायाधीश मानने वालों की दृष्टि में तो यह सब ईश्वर की इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा या न्याय के अनुसार हो रहा है। न्यायाधीश की गद्दी पर बैठने वाले ईश्वर की आज्ञा के अनुसार ही तो ये चोर, डाकू, हत्यारे आदि पुलिस के सिपाहियों की तरह का काम कर रहे हैं, फिर उन्हें कारागार में बंद क्यों किया जाता है, क्यों उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता है ? ईश्वर ने ऐसा भाग्य क्यों बनाया? तात्पर्य यह है कि भाग्यविधाता एवं कर्मफलदाता तथाकथित ईश्वर ने किसी व्यक्ति का ऐसा भाग्य क्यों बना दिया, जिसके कारण उसे कसाई, चोर, डाकू या हत्यारे का धंधा अपनाना पड़ा? उनके इस प्रकार के भाग्य-निर्माण के कारण कसाई अपने स्वभावानुसार मूक पशुओं का वध करके उनकी जीवन-लीला समाप्त कर देता है, चोर दूसरों के धन का अपहरण करता है, और लोगों को संकट में डाल देता है। डाकू डाके डालकर सम्पत्ति लूट लेता है, उस घर के लोगों की हत्या करता है, मारता-पीटता है, और सारे परिवार को दुःख सागर में धकेल देता है। ये चोर, डाकू, कसाई या हत्यारे जो भी पापकर्म करते हैं, और जनता को भयंकर पीड़ा पहुँचाते हैं, उसमें उनका कोई दोष नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि तथाकथित ईश्वर उन्हें कसाई, चोर, डाकू या हत्यारे न बनाता तो वे ऐसे नीच कर्म न करते। ईश्वर को भाग्यविधाता मानने पर यही मानना अनिवार्य हो जाता है कि मनुष्य या पशु के जीवन में जो भी पापमय अशुभ प्रवृत्तियाँ होती हैं, उन सबका जिम्मेवार ईश्वर हैं।' बुद्धि की दुष्टता ईश्वरप्रदत्त होने से घातकों की दुर्बुद्धिरूप कर्मफलोत्पादक ईश्वर यदि यह कहें कि ईश्वर जीव को कब कहता है कि तू बुरे कर्म कर? इसके उत्तर में यह प्रतिप्रश्न उठता है कि मनुष्य या पशु बुरे कर्म क्यों करते हैं ? इसीलिए करते हैं कि १. (क) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) से भावांश ग्रहण, पृ. ५८ (ख) कर्मवाद : एक अध्ययन, से भावांश ग्रहण पृ. ७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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