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कर्मों का फलदाता कौन ? २४३
इन सब बातों को पूर्णतया जानते हुए भी तथा मेरे भूत-भविष्य को हस्तामलकवत् देखते हुए भी परमात्मा ने जब मेरा भाग्य ऐसा दुर्बुद्धि-पूर्ण बनाया है, तब मुझे पापकर्म करने से भय और संकोच क्यों होगा? और क्यों धर्म-विरुद्ध एवं लोकव्यवहार-विरुद्ध पाप प्रवृत्तियाँ करने में झिझक होगी ? इसलिए मैं बेधड़क ये पापप्रवृत्तियाँ करता हूँ। सच पूछें तो मुझे न तो पाप कर्म करने में कोई बुराई मालूम होती है और न ही किसी प्रकार की भीति । क्योंकि मेरी आस्था ऐसी बन गई है कि परमपिता परमात्मा ने सब कुछ जानते-देखते हुए मेरा भाग्य ऐसा ही बनाया है, और मैं उसी भाग्यानुसार जो कुछ भी कर रहा हूँ, उससे मुझे पाप नहीं लग सकता।' तथाकथित परमात्मा द्वारा जैसा भाग्य निर्माण : वैसा ही कार्य दुरात्मा लोग करते
हैं।
इससे भी आगे बढ़कर वह और भी ढीठ बनकर परमहितैषी संत को उत्तर देता है-मैं तो परमात्मा का सच्चा भक्त हूँ। उनके साथ द्रोह कैसे कर सकता हूँ ? उन्होंने मेरा जैसा भाग्य बनाया है, उसके अनुरूप ही मैं सब कार्य करता हूँ। परमात्मा के बनाए हुए भाग्य के अनुसार मैंने पापकर्म करने छोड़ दिये तो उनके साथ बड़ा भारी दगा होगा। रही परमात्मा के दरबार में मेरे से अपने कारनामों की पूछताछ की बात । परमात्मा तो स्वयं अन्तर्यामी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे पूछेंगे भी नहीं । यदि परमात्मा के दरबार के कर्मचारियों की भ्रान्तिवश मुझसे उन्होंने पूछ भी लिया तो मेरे पास घड़ाघड़ाया उत्तर यह है कि - प्रभो ! आप ही तो मेरे भाग्य विधाता हैं। आपने मेरे भाग्य का जैसा निर्माण कर दिया, तदनुसार
मैं कार्य कर रहा हूँ । पापमय भाग्य बनाकर आप कैसे पूछते हैं कि मैंने अमुक पाप क्यों किया ? मैंने जो कुछ भी अतीत में किया है, वर्तमान में कर रहा हूँ या भविष्य में करूँगा, वह सब आप भाग्य विधाता की आज्ञा एवं प्रेरणा के अनुसार ही हुआ, हो रहा या होगा, उसकी सारी जिम्मेदारी आपकी है। मैं तो आपका वफादार सेवक और सपूत हूँ । आपके बनाए हुए भाग्य के अनुसार ही मेरे से सब कुछ हुआ है ! मेरे जीवन के समस्त क्रियाकलाप की जिम्मेवारी मेरे भाग्य विधाता अन्तर्यामी प्रभु की है। यदि मेरा भाग्य खराब न बनाते तो मेरी बुद्धि खराब न होती और मेरे से ये लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध पापमय कार्य न होते। आप स्वयं मेरे भाग्य विधाता, कर्मप्रेरक एवं कर्मफल प्रदाता होकर भी मुझसे पूछते हैं ?
परमात्मा के इस उद्धत वफादार ने पापों से निर्दोष होने की जो बात कही है, उसी को उर्दू का एक शायर अपनी भाषा में व्यक्त करता है
9. वही, से भावांश ग्रहण, पृ. ६०-६१
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