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________________ २३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५). वह इच्छा से रहित है। यदि मैस्मेरिज्म या हिप्नोटिज्म जैसी सम्मोहनी विद्या की भाँति ऐसा होना मान भी लिया जाए तो ईश्वर मोही सिद्ध होगा उसकी वीतराग तो सुरक्षित नहीं रह सकेगी, क्योंकि इच्छा, राग, मोह, आदि वीतरागता के विरोधी हैं। अतः निरंजन निराकार तथा अनन्तज्ञानादि चतुष्टय सम्पन्न ईश्वर जीवों को कर्म करवाने एवं फल भुगवाने के प्रपंच में क्यों पड़ेगा ? कृतकृत्य ईश्वर को सांसारिक झंझटों में पड़ने का लोभ और राग क्यों जगा ? (४) किसी भी सर्वव्यापी व्यक्ति विशेष के द्वारा कोई भी कार्य करना सम्भव नहीं है; क्योंकि क्रिया या प्रवृत्ति करने के लिए मन-वचन-काया का योग (स्पन्दन या हिलना डुलना) आवश्यक है, जो उन सर्वथा योगनिरुद्ध परमात्मा में नहीं है, तथा जैसे आकाश सर्वव्यापी होने से हिल-डुल नहीं सकता, वैसे ही तथाकथित ईश्वर का हिलना-डुलना भी असम्भव है। शुद्ध तत्त्वरूप ईश्वर परस्पर विरोधी कार्य कैसे कर सकता है ? ईश्वरकर्तृत्ववादियों द्वारा ईश्वर एक तथा शुद्ध एवं कोई हाथ-पैर वाला व्यक्ति न मानकर अव्यक्त तत्त्वरूप माना गया है। ऐसी स्थिति में शंका होती है कि एक शुद्ध तत्त्व अनेक दुष्ट, अशुद्ध, चित्र-विचित्र तथा परस्पर विरोधी कार्य कैसें कर सकता है ? यथा-गमन और स्थिति, सुख व दुःख, ज्ञान और अज्ञान, राग और विराग आदि परस्पर विरोधी हैं। निमित्त रूप से यदि कुछ कर सकता हो तो भी इनमें से एक समय में कोई एक ही कार्य कर सकेगा; सकल कार्य नहीं । इत्यादि अनेकों बातें ईश्वर के द्वारा फलप्रदानरूप कार्य के रूप में एक ही समय में कैसे हो सकती है।' सारे संसार के कर्म और कर्मफल का हिसाब एवं व्यवस्था रखना ईश्वर के लिए सम्भव नहीं ईश्वर के द्वारा जीवों को फलदातृत्व में दूसरी बाधा यह है कि इतना बड़ा कार्य करने के लिए, समग्र लोक में यत्र-तत्र व्याप्त छोटे-बड़े प्राणियों के क्षण-क्षण के कर्म और कर्मफल का, तथा कर्मफलस्वरूप दण्ड- पुरस्कार आदि का हिसाब-किताब रखने में उसे कितना समय लगेगा? इतना समय उसे कहाँ मिलेगा ? अगर दिन और रात का सारा समय इसी प्रपंच में बिता देगा तो अपने आत्मभावों में रमण कब करेगा ? अनन्त आध्यात्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न परमात्मा (ईश्वर) संसार के पूर्वोक्त प्रपंच में पड़कर तो अपना आध्यात्मिक ऐश्वर्य ही खो देगा। फिर उसे सारे संसार के जीवों के कर्म और १. (क) कर्म सिद्धान्त ( जिनेन्द्रवर्णी) से भावांशग्रहण, पृ-४-५ (ख) हुँ आत्मा हुँ भा. १ ( प्रवक्ता डॉ. तरुलताबाई स्वामी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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