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________________ कर्मों का फलदाता कौन ? २३७ कोई स्थूलशरीरधारी ईश्वर दिखाई नहीं देता। यदि कहें कि सूक्ष्मशरीर के द्वारा वह जगत् के जीवों को कर्मफल भुगवाता या देता है, परन्तु ईश्वर तो निरंजन, निराकार, अपौद्गलिक (अभौतिक), एकमात्र चैतन्यघन सच्चिदानन्दस्वरूप (अनन्त-ज्ञानादिचतुष्टय-रूप) है। __निराकार ईश्वर किसी आकार को अपनाकर कर्मफल देता है, तो उसकी निराकाररूपता समाप्त होती है। और प्रत्यक्षरूप से भी साकार होकर निराकार परमात्मा कभी किसी को कर्मफल देते-दिलाते नहीं देखा गया है। निराकार परमात्मा के कार्मण शरीर या तैजस शरीर या तथाकथित कोई सूक्ष्म शरीर भी है नहीं, हो भी नहीं सकता, जिससे कि यह सब किया जाना सम्भव हो सके। कदाचित् यह मान भी लें कि उसके दिव्यसूक्ष्म शरीर है, तो भी एक ही शरीर से इतने विशाल समग्र संसार में युगपत् चित्र-विचित्र अनेक कार्य किये जाने कैसे सम्भव हो सकते हैं ? ईश्वर की सर्वज्ञता केवल जानने रूप होती है, करने रूप नहीं (२) ईश्वर की सर्वज्ञता तो केवल जानने रूप होती है, वह सर्वज्ञता के द्वारा केवल निरन्तर ज्ञाता द्रष्टा रह सकता है, सर्वज्ञता से कर्तृत्व तो कथमपि सम्भव नहीं है। सर्वज्ञ सब जीवों को द्रव्य-गुण-पर्यायसहित जान-देख सकता है, कार्य करने में यानी जीवों को कर्म कराने और कर्मफल देने के प्रपंच में, वह समर्थ नहीं है। यानी उसकी सर्वज्ञता जीवों को सुख-दुःख देने में कैसे समर्थ हो सकती है? सर्वज्ञता वीतरागता के बिना सम्भव नहीं दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञता वीतरागता के बिना कथमपि सम्भव नहीं है। यही कारण है कि इच्छावान्, रागादि विकारों से युक्त और कषायादि या कर्म-कल्मषों से युक्त संसारी जीवों में वीतरागता नहीं होती तब तक उनमें सर्वज्ञता भी नहीं पाई जाती। वीतराग कभी दण्ड देने, कर्मफल भुगवाने के चक्कर में नहीं पड़ते वीतराग व्यक्ति द्वारा कर्म करवाना, फल भुगवाना, दण्ड देना-दिलाना आदि सब चित्र-विचित्र दुनियादारी के खेल खेलते रहना युक्तिसंगत ही नहीं है। क्योंकि वीतराग तो निरन्तर ज्ञाता-द्रष्टा हुआ करते हैं, कर्ता-धर्ता-हर्ता या कर्मफलदाता नहीं।' लीला करने वाला या इच्छानुरूप खेल करने वाला ईश्वर मोही होगा; वीतरागी नहीं (३) ईश्वर की इच्छामात्र से या उसकी लीलामात्र से यह सब कुछ होना भी किसी प्रकार गले नहीं उतरता; क्योंकि एक तो ईश्वर अमूर्तिक, अरूपी (निराकार) है; दूसरे, १.. कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्रवर्णी) से भावांश ग्रहण पृ. ४-५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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