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________________ २३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) दिखाई देती है। कर्मों में स्वयं में ऐसी शक्ति है, जिसके कारण जीव को प्राकृतिक नियमानुसार अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल, वह चाहे या न चाहे, मिलता रहता है।' ___इसी तथ्य की पुष्टि भगवद्गीता में की गई है, जिसका भावार्थ है-“जगत् के जीवों का कर्तृत्व तथा उनके कर्मों का सृजन प्रभु (ईश्वर) नहीं करता, और न ही उनसे कर्मफल का संयोग कराता है। यह सब स्वभावतः (कर्मों की प्रकृति के नियमानुसार) चलता रहता है। ईश्वर को कर्मफलदाता मानने पर अनेक आपत्तियाँ और अनुपपत्तियाँ सम्भव अतः वैज्ञानिक दृष्टि को धारण करने वाले जैनकर्म-विज्ञान ने इस प्रकार का कोई भी अदृश्य फलदाता ईश्वरीय शक्ति का स्वीकार नहीं किया। उसने कहा कि कर्म का फल देने की शक्ति स्वयं कर्म के स्वभाव में निहित है। यदि ईश्वर को जीवों का कर्मफलदाता न्यायाधीश बनाया जाएगा तो अनेक बाधाएँ और आपत्तियाँ सामने आकर खड़ी हो जाएँगी। जिनका युक्तियुक्त समाधान ईश्वर-कर्तृत्ववादियों के पास नहीं इस सम्बन्ध में हमने 'कर्मविज्ञान' के द्वितीय खण्ड के अन्तर्गत 'कर्मवाद पर प्रहार और परिहार' नामक निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। यह तो स्पष्ट है कि ईश्वरकर्तृत्ववादी भी ईश्वर को अशरीरी (निरंजन, निराकार) सर्वज्ञ, शुद्ध (कर्मकल्मष से तथा रागादि विकारों से रहित) एवं सर्वव्यापी मानते हैं; परन्तु ईश्वर को सांसारिक जीवों का कर्मफलदाता मानने पर इन सभी विशेषताओं में विरोध प्राप्त होता है। अशरीरी ईश्वर शरीरधारियों को कैसे कर्मफल दे सकता है? (१) ईश्वर जब अशरीरी (शरीर-रहित) है, तब वह स्थूलशरीरधारियों को कैसे विघ्न-बाधा या सहायता पहुँचा सकता है ? स्थूलशरीरधारी सांसारिक जीवों को कर्मफल के रूप में दण्ड या पुरस्कार देने के लिए स्थूल शरीर की आवश्यकता होती है। मगर ऐसा १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री) (ख) कर्म-मीमांसा (स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी) २. “न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः।। न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥" -भगवद्गीता अ. ५, श्लो. १४ ३. (क) कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण पृ. ६९ (ख) देखें-कर्मविज्ञान द्वितीय खण्ड के 'कर्मवाद पर प्रहार और परिहार' नामक निबन्ध पृ. २९५-३०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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