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२३० . कर्म-विज्ञान : -भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
अच्छा-बुरा कर्म करता है, तो उसे यह उत्तरदायित्व लेना होता है कि वह स्वयं उसके लिए नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी है।”
आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा स्वयं विकास करने में प्रभु है
धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी ईश्वरकर्तृत्ववाद का सिद्धान्त गलत सिद्ध होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने आत्मिक विकास, आन्तरिक परिवर्तन एवं अभ्युदय का अधिकार है। छोटे-से-छोटे प्राणी को भी ये अधिकार प्राप्त है। एक इन्द्रिय वाला प्राणी भी विकास करते-करते पंचेन्द्रिय तक, और पंचेन्द्रिय में भी मनुष्य तक पहुँच जाता है।. मनुष्य बनकर वह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के पथ पर आरूढ़ होकर क्रमशः क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक पहुँच जाता है तथा तत्पश्चात् वीतराग, पूर्णज्ञानी, एवं सिद्ध बुद्ध परमात्मा बन सकता है। '
जीव की प्रभुत्वशक्ति का विश्लेषण करते हुए पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति में कहा गया है--कर्म संयुक्त जीव अनादिकाल से भावकर्म एवं द्रव्यकर्म के उदय से शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता बनता है तथा सान्त या अनन्त चतुर्गतिक संसार में मोह से आच्छादित होकर भ्रमण करता रहता है। इसके विपरीत कर्ममुक्त होने की अपेक्षा से जिनेन्द्र प्ररूपित मार्ग पर चल कर जीव समस्त कर्मों को उपशान्त या क्षीण करके ज्ञानादिरूप मोक्षमार्ग को प्राप्त हो जाता है। इससे स्पष्ट है- आत्मा प्रभु है । २ जैनदर्शन द्वारा आत्मकर्तृत्ववाद ही अभीष्ट है, परमात्मकर्तृत्ववाद नहीं
जैनदर्शन ने आत्मा के इस विश्लेष्ण द्वारा आत्मकर्तृत्ववाद की परिपुष्टि की है, जिससे ईश्वरकर्तृत्व का खण्डन हो जाता है कि जीव ईश्वर की प्रेरणा से शुभाशुभ कर्म करता है। ईश्वर ही उसे बन्धन में बांधता और मुक्त करता है।
तीनों कार्यों में ईश्वर की आवश्यकता नहीं
जैनदर्शन आत्मकर्तृत्ववादी दर्शन है। उसे ईश्वरकर्तृत्ववाद का सिद्धान्त मान्य नहीं है। ईश्वर कर्तृत्ववाद के साथ तीन कार्यों की कल्पना की गई है -- ( १ ) वह सृष्टि का कर्ता हो, (२) सृष्टि का नियन्ता हो, तथा (३) अच्छे-बुरे कर्म का फल भुगवाने वाला हो। जैनदर्शन ने इन तीनों कार्यों के लिए ईश्वर की आवश्यकता महसूस नहीं की। सृष्टि का स्वयं उत्पाद-व्यय के रूप में परिणमन होता रहता है
जैनदर्शन जगत् को प्रवाह रूप से अनादि मानता है। तथा वह (जगत्) किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है, अकृत्रिम है। जीव और पुद्गल के संयोग से प्रत्येक पदार्थ में
१. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. १०७-१०८
२.
पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, टीका गा. ६९-७०
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