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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २२९ लोगों के लिए तो ये दुर्जेय हैं। इससे स्पष्ट है कि कर्म का कर्ता जीव स्वयं ही है, ईश्वर की प्रेरणा से कर्ता नहीं। प्रत्येक आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है
जैनकर्म-विज्ञों ने कर्म के कर्तृत्व पर स्वतंत्ररूप से चिन्तन किया और प्रथम सिद्धान्तसूत्र दिया--'प्रत्येक आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है। पंचास्तिकाय में कहा गया है--“सभी आत्मा प्रभु और स्वयम्भू हैं, वे किसी के वशीभूत नहीं हैं।" प्रत्येक आत्मा अपने शरीर का स्वामी स्वयं है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो--समस्त प्राणी अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं। जीव चाहे तो शुभकर्मपूर्वक अपना पूर्ण विकास करके ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय प्राप्त कर सकता है, और चाहे तो दुष्कर्म करके स्वयं अभव्य, पापी या अनाचारी बना रह सकता है।
___ यदि व्यक्ति का अपने कृत कर्म का संकल्प स्वतंत्र नहीं है, पराधीन या ईश्वराधीन है, तो वह अपने कृतकों के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। जैनदर्शन के अनुसार जीव संकल्प करने में स्वतंत्र है, इसलिए वह कृतकर्म के प्रति स्वयं जिम्मेवार है। वह शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतंत्र है, इसलिए उसे शुभकर्म का शुभ और अशुभ कर्म का अशुभ फल मिलता है। पंचास्तिकाय टीका में कहा गया है--"आत्मा (अशुद्ध) निश्चयनय की अपेक्षा से भावकों का और व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्यकर्म, आम्नव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त करने में स्वयं ईश (समर्थ) होने से 'प्रभु' है। आत्मा की प्रभुता-समर्थता यह है कि वह शुभ प्रवृत्ति के द्वारा ऐश्वर्यशाली बने, शुभ पदार्थों का उपभोग करे, अनन्त सुख का अनुभव करे, अथवा दुष्प्रवृत्ति करते हुए दीन-दुःखी बनकर अनन्त दुःखों को भोगे तथा जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहे, यह उसकी स्वतंत्रता है। इस दृष्टि से शुभ-अशुभकर्म का उत्तरदायी स्वयं (व्यक्ति) है। अतः . दार्शनिक दृष्टि से ईश्वरकर्तृत्व की धारणा सम्यक् नहीं हैं। 'नैतिक दृष्टि से आत्मा ही कृत का नैतिक जिम्मेदार है ___नैतिक दृष्टिकोण से भी ईश्वरकर्तृत्ववाद यथार्थ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि कृत का नैतिक जिम्मेदार व्यक्ति स्वयं है। वह अपने उत्तरदायित्व से छूट नहीं सकता। कोई भी
१. देखें उत्तराध्ययन सूत्र अ. १३ गा. २७ से ३0 तक का विवेचन (जैनागम प्रकाशन समिति
व्यावर) पृ. २१७, २१८, २१९ २. (क) पंचास्तिकाय २७ ।
(ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. १२३ (ग) पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका २७
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