________________
२२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कषाय- नोकषाय) ही पाप कर्म में प्रवृत्त करते हैं। कर्मविज्ञान की भाषा में कहें तो जीव का पूर्वबद्धसंस्कार रूप भावकर्म ही उसे पापकर्म में प्रवृत्त करता है। यहाँ भी प्रकारान्तर से ईश्वरकर्तृत्व के बदले आत्मकर्तृत्व का सिद्धान्त प्रतिफलित होता है।
महाभारत में दुर्योधन से पूछा जाता है कि " तुम्हारी राज सभा में अनेक धर्मशास्त्री, समाज-शास्त्री, नीतिशास्त्रवेत्ता, इतिहासज्ञ एवं पौराणिक विद्वान् हैं, वे तुम्हे उन-उन शास्त्रों में विहित धर्म, नीति और कर्तव्य की प्रेरणा देने वाले सूत्रवचन सुनाते हैं, तुम्हें नीति और धर्म का, कर्तव्य और दायित्व का ज्ञान भान भी है, फिर भी क्या कारण है, तुम धर्म और नीति के उन नियमों पर चल नहीं पाते ?"
1
इसके उत्तर में दुर्योधन कहता है
“धर्म क्या है ? यह मैं भलीभांति जानता हूँ, किन्तु धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं अधर्म को भी जानता हूँ, किन्तु अधर्माचरण से निवृत्त (विरत) नहीं हो पाता। मेरे हृदय में कोई न कोई दुर्देव (आसुरी भाव या मोहादि दुर्भाव ) बैठा हुआ है, वह मुझे जिस-जिस कार्य (सुकृत्य या दुष्कृत्य) में नियुक्त करता है, अर्थात् वह मुझे जैसा-जैसा सुझाता है, वैसा-वैसा मैं करता हूँ।'””
यह दुष्टभाव या दुर्देव अथवा पूर्वोक्त काम-क्रोधादि दुर्भाव और कोई नहीं, आत्मा की अशुद्ध दशा में होने वाले रागद्वेष, मोह या कषायादि विकार हैं, वैभाविक भाव हैं, जिनके कारण वह शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है। इसीलिए कहा गया कि अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा अपने रागादि वैभाविक भावों--भावकर्मों का कर्ता है।
भोगों के त्याग करने की असमर्थता : ब्रह्मदत्त चक्री के द्वारा
इसी प्रकार चित्तमुनि ने जब सम्भूति के जीव को भोगमार्ग (प्रेयमार्ग) छोड़ कर त्याग (श्रेय) मार्ग की ओर मुड़ने का कहा तो उसने उत्तर में यही कहा- मैं यह सब जानता हुआ भी दलदल में फंसे हुए हाथी की तरह (पूर्वनिदानकृतकर्मोदयवश) कामभोगों में फँस कर उनके अधीन निष्क्रिय हो गया हूँ। त्यागमार्ग के शुभ परिणामों को देखता हुआ भी उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा सकता। आप जिस प्रकार मुझे सांसारिक पदार्थों की अनित्यता और अशरण्यता के विषय में उपदेश दे रहे हैं, उसे मैं भी समझ रहा हूँ कि ये भोग असंगकारक (आसक्ति में बांधने वाले) होते हैं, किन्तु हम जैसे
9.
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः । केनाऽपि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
--महाभारत
www.jainelibrary.org