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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २३१ परिणमन--वैभाविक परिवर्तन होता है। यही सृष्टि है, जो जीव और पुद्गल के द्वारा निर्मित होती रहती है। सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का उत्पत्ति और व्यय के रूप में परिणमन होता रहता है, पदार्थ अपने आप में नित्य बना रहता है, उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं। निष्कर्ष यह है कि जीव और पुद्गल के अतिरिक्त सृष्टि-कर्तृत्व के लिए तीसरी सत्ता को मानने की आवश्यकता नहीं रहती। सृष्टि का नियंता भी ईश्वर आदि कोई नहीं ___जैनदर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता भी कोई नहीं है। अगर कोई सर्वशक्तिमान नियन्ता होता तो सृष्टि इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण, दोषपूर्ण तथा अनेक अव्यवस्थाओं से पूर्ण न होती। यदि सृष्टिकर्ता तथाकथित ईश्वर सर्वशक्तिमान् नहीं है तो वह समग्र सृष्टि का नियमन अकेला नहीं कर सकता। अतः नियन्ता की बात युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होती। सृष्टि का नियमन सर्वभौमिक नियमों द्वारा ____ जैन दर्शन सृष्टि का नियमन नियम-सार्वभौम नियम के द्वारा मानता है, नियन्ता के द्वारा नहीं। सार्वभौम नियम अकृत्रिम हैं, त्रैकालिक हैं, जीव और पुद्गल के 'स्वयंभू' नियम हैं। वे किसी के द्वारा निर्मित नहीं हैं। किसी जीव को देवगति पाना है या मोक्ष पाना है तो वह उस-उस नियम के अनुसार जाएगा। यह सारी प्राकृतिक एवं स्वयंकृत व्यवस्था है;बाहर से निर्मित या आरोपित नहीं है। इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। ईश्वर को नियन्ता मानने पर दोषापत्तियाँ ___ जहाँ ईश्वर को नियंता माना जाएगा तो वहाँ सब कुछ ईश्वर की मर्जी पर छोड़ दिया गया। न तो वहाँ कर्मवाद की आवश्यकता पड़ी और न पुरुषार्थ की। ईश्वर के द्वारा सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठी तो कर्मवाद को बीच में लाना पड़ा। ईश्वर किसी को अच्छा और बुरा फल क्यों देता है? यह प्रश्न जब ईश्वरकर्तृत्ववादियों के समक्ष आया तो उन्होंने कहा-“ईश्वर प्राणी के अच्छे-बुरे कर्म के अनुसार अच्छा-बुरा फल देता है।" तात्पर्य यह है कि कर्मवाद के बिना व्यवस्था सम्यक् नहीं हो सकी, अन्ततोगत्वा सब कुछ कर्मवाद से ही होना है, तब ईश्वर को बिचोलिया बनाने की क्या आवश्यकता है ? यह एक प्रकार से प्रक्रिय-गौरव है जिसे सहन नहीं किया जाना चाहिए।' अतः ईश्वर न तो सृष्टि का कर्ता है, न ही जीवों के कर्मों का प्रेरक या नियंता है। स्वयं आत्मा ही कर्म का कर्ता है, वही भोक्ता है तथा कर्म ही स्वयं नियंता है। " १. (क) जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. १0४-१०५, ११२ . (ख) प्रक्रियागौरवं यत्र, तं पक्षं न सहामहे। प्रक्रियालाघवं यत्र, तं पक्षं रोचयामहे ।। --तर्क शास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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