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________________ २२० . कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) आत्मा ही कर्म का कर्ता और फलभोक्ता है वस्तुतः कर्म का कर्त्ता और फलभोक्ता आत्मा स्वयं ही है। इसी आत्म-कर्तृत्ववाद का समर्थन जैनशास्त्रों में तथा महाभारत आदि वैदिक धर्मग्रन्थों में भी मिलता है। सूत्रकृतांग में भी कहा गया है- सभी प्राणी अपने कृतकर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं। आत्मा स्वयं अपने द्वारा कृत कर्मों से बन्धन में पड़ता है। भगवतीसूत्र में भी स्पष्ट कहा है- " आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही कर्मों की उदीरणा करता है, स्वयं अपने द्वारा ही उनकी गर्हा - आलोचना करता है और अपने द्वारा ही कर्मों का संवर (आनव-निरोध) करता है।"" महाभारत भीष्म पर्व में कहा गया है- "हे राजन् ! आत्मा के द्वारा किये गये कर्म का फलभोग आत्मा के द्वारा ही किया जाता है, चाहे वह कर्म तुम्हारे द्वारा जिस किसी प्रकार से इहलोक में किया गया हो या परलोक में किया गया हो ।” हरिवंशपुराण में भी इसी तथ्य को अभिव्यक्त किया गया है- “अपनी आत्मा द्वारा स्वयं जो भी शुभ या अशुभ कर्म किया गया हो, काल प्राप्त होने पर सभी देहधारियों के जीवन में वह कर्म (फल के रूप में) दिखाई देता है।” महाभारत वन पर्व में भी कहा गया है- "मनुष्य अपने द्वारा किये गये दोषों (अपराधों) के कारण जन्म, जरा और मृत्यु के दुःखों से सतत घिरा हुआ, रहकर संसार में रचा-पचा रहता है। प्राणी उन-उन स्वकृत कर्मों के कारण परलोक में दुःखित होता है। और उस दुःख के प्रतिघात (नाश) के लिए पाप योनि को प्राप्त करता है । "" 9. २. (क) अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। (ख) " सव्वे सय कम्म कप्पिया । " (ग) “जहा कडं कम्म, तहासि भारे।” (घ) अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरइ ।" - उत्तराध्ययन २०/३७ -सूत्रकृतांग १/२/६/१८ गा. -वही, १/५/१ गा. २६ जन्तुभिः कर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतैः प्रेत्य दुःखितः । तदुःख-प्रतिघातार्थमपुण्यां योनिमाप्नुते ॥३५॥ (क) “आत्मनैव कृतं कर्म, ह्यात्मनैवोपभुज्यते । इह वा प्रेत्य वा राजस्त्वया प्राप्तं यथा तथा । (ख) स्वयमात्मकृतंकर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम् । प्राप्त काले तु तत्कर्म दृश्यते सर्वदेहिनाम् ॥ (ग) जातिमृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः । संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः॥ ३३॥ -हरिवंशपुराण उग्रसेन अभि. २५ -महाभारत वनपर्व ३३, ३५ Jain Education International - भगवतीसूत्र श. १, उ. ३ - महाभारत भीष्म पर्व अ. ७७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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