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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? आत्मा स्वयं ही कर्ता, तथा कर्मों की फलोत्पादन शक्ति से स्वयं फलभोक्ता अतः जैनकर्मविज्ञान का यह सिद्धान्त अकाट्य है कि आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ कर्म करता है और उसका फल भी कर्म के प्रभाव से अर्थात् कर्मों की फलोत्पादनशक्ति से स्वयं ही भोग लेता है। ईश्वर या अन्य किसी शक्ति का इसमें हस्तक्षेप नहीं है। भगवद्गीता में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है- प्रभु (परमात्मा) संसार (लोकगत जीवों) कर्मों- - का न तो कर्ता है और न ही कर्मों का सृजन करता है। यानीदूसरे जीव के लिए स्वयं कर्म नहीं करता। और न ही कर्मफल का संयोग कराता है। जगत् के जीव अपने-अपने कर्मानुसार स्वाभाविक रूप से (स्वयं कर्म में ) प्रवृत्त होते हैं (और स्वयं ही उसका फल भोगते हैं) । ' दुःख जीव के द्वारा प्रमाद के कारण किया गया है जितने भी कर्म हैं, उन सबका फल सुख या दुःख रूप में आता है। शुभ कर्म का फल सुखरूप होता है और अशुभ कर्म का फल दुःखरूप। एक प्रकार से दुःख कर्म का पर्याय-वाचक बन गया है। इसी दृष्टि से स्थानांगसूत्र में एक प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है। भगवान् महावीर से पूछा गया है- “भगवन्! दुःख किसने किया है ?” भगवान् ने कहा“दुःख जीव ने ही अपने प्रमाद के कारण उत्पन्न किया है।” गौतमादि ने पूछा - "भंते! यह दुःख कैसे नष्ट होता है ?” भगवान् ने कहा- "अप्रमाद से दुःखक्षय होता है। "२ २२१ इस प्रश्नोत्तरी से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जितने भी दुःख रूप कर्म हैं, उन सबका कर्ता और भोक्ता तथा विकर्ता (क्षयकर्ता) आत्मा ही है, परमात्मा या और कोई न तो किसी के सुख-दुःख रूप कर्म का कर्ता है, न भोक्ता है। सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता आत्मा ही है उत्तराध्ययन सूत्र भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि आत्मा ही (अपने लिए) सुख-दुःखों का कर्ता है, वही विकर्ता (भोक्ता या क्षयकर्ता ) है | जीव द्वारा कर्म करने से दुःख होता है, दुःख रूप फल भोगता है स्थानांगसूत्र में फिर अन्यतीर्थिकों द्वारा इस सम्बन्ध में प्रश्न उठाया गया है और भगवान् ने उसका समुचित समाधान दिया है- “भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते १. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ -भगवद्गीता ५/१४ २. ( प्र . ) " से णं भंते! दुक्खे केण कडे ? (उ.) जीवेण कडे पमाण । (प्र.) से णं भंते! दुक्खे कहं वेइज्जइ ? (उ.) अप्पमाएणं । - स्थानांग स्था. ३, उ. २ सू. १६६ ३. 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।' - उत्तरा. अ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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