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२१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
करता है। किन्तु कर्मविमुक्त होते ही परिनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है । यही (संसारी) आत्मा का लक्षण है, अन्य नहीं । '
कर्म के साथ कर्ता और फलभोक्ता परस्पर सम्बद्ध हैं
बौद्ध दर्शन का कथन है- कर्म से विपाक प्रवर्तित होता है और विपाक से कर्म उत्पन्न होता है। साथ ही वह कारणरूप परम्परा से आगे किसी कर्ता के तथा विपाक से आगे फलभोक्ता को नहीं देखता । “किन्तु कारण के होने पर ही कर्ता है और विपाक की प्रवृत्ति से फलभोक्ता है; ऐसा मानता है।"२ जैन दार्शनिकों ने कहा- कर्म के कारण को मानना और उसके कर्ता तथा फलभोक्ता को प्रत्यक्ष (Direct) न मानना वदतो व्याघात है। वस्तुतः कर्ता, कर्म और कर्मविपाक तथा फलभोक्ता ये चारों परस्पर एक दूसरे से अनुस्यूत हैं। कर्म हैं तो उनके कारण भी हैं, कर्ता भी हैं, कर्मफल भी हैं और फलभोक्ता भी है।
आत्मा और पुद्गल दोनों अपने-अपने गुणों के कर्ता हैं; किन्तु निमित्त रूप से परिणमनकर्ता हैं
यद्यपि आत्मा और पुद्गलकर्म एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं, तथापि न तो आत्मा पुद्गलकर्मों के गुणों का कर्ता है और न ही पुद्गलकर्म आत्मा के गुणों का कर्ता है; किन्तु दोनों परस्पर एक-दूसरे के निमित्त से परिणमन करते हैं। अतः आत्मा चेतन होने से जड़ कर्म पुद्गल का उपादान या साक्षात्कारण न होते हुए भी परम्परा प्राप्त परोक्षभाव से उसका कारण है। इसलिए व्यवहारदृष्टि से आत्मा जड़-कर्मपुद्गल का कर्ता माना जाता है। तथा स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले सुख-दुःखादि का भी व्यवहार से भोक्ता कहा जाता है।
9.
(क) पंगुकुष्टि - कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । नीरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतः त्यजेत् ॥ (ख) दारिद्र्यः दुःख - रोगानि बन्धन- व्यसनानि च ।
- योगशास्त्र, प्रकाश १
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् ॥
- चाणक्यनीति
(ग) यः कर्ताकर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्गा परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ - कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी )
२. मज्झिमनिकाय ३/१/३
३.
जीव - परिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ विकुव्वदि कम्मगुणे जीवो, कम्मं तहेव जीवगुणे । अणोण निमित्तेण दु परिणामं जाण दोहंपि ॥ एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकडाणं ण दु कत्ता सव्वभावानं ।
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-समय-प्राभृत
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