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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २१७
भी विकृत अवस्था है, जो जीव की मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से निर्मित हुई है, उससे ही सम्बद्ध है। जीव और पुद्गल दोनों स्वाभाविक अवस्था में हों तो कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। दोनों अपने स्वभाव में स्थित नहीं हैं, इसलिए निश्चयनय द्वारा इसका निरूपण न होकर व्यवहारनय द्वारा ही इसके कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निर्णय हो सकता है। ___जीव कर्मों का कर्ता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से विद्यमान है, उसका निर्माण जीव नहीं करता। जीव तो अपने सन्निकट में स्थित कर्म पुद्गल परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों से आकृष्ट कर अपने में मिलाकर नीर-क्षीरवत् एक कर देता है। यही संसारी जीव द्वारा द्रव्य कर्मों का कर्तृत्व है। यदि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है तो फिर उनका कर्ता कौन है ? पुद्गल स्वतः तो कर्मरूप में परिणत नहीं होता, जीव ही उसे कर्मरूप में परिणत करता है। ___ दूसरी बात यह है कि द्रव्य कर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भावकों का कर्तृत्व कैसे सम्भव हो सकता है। द्रव्यकर्म ही तो भावकर्म को उत्पन्न करते हैं। सिद्ध परमात्मा द्रव्यकों से मुक्त हैं, इसलिए भावकों से भी मुक्त हैं। जो कर्म का कर्ता होता है वही उसका फलभोक्ता होता है। संसारी जीव ही कर्म का कर्ता और फल का भोक्ता है, किन्तु मुक्त जीव न तो कर्म का कर्ता है, न ही भोक्ता है।' कर्मफलों को व्यक्तियों के जीवन में देखकर कर्मकर्ता का अनुमान ... आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में हिंसा के फल के सम्बन्ध में कहा है-पंगु, कोढ़ी,
और अंगविकल आदि व्यक्तियों को देखकर यह समझो कि ये सब निर्दोष त्रस जीवों के हिंसारूप पाप कर्म के फल हैं, जिन्हें वे भोग रहे हैं। इसका आशय यह है कि फलभोक्ता को देखकर उसके कर्ता का अनुमान स्वतः हो जाता है। जो जीव कर्मफल भोग रहा है, वही उस कर्म का कर्ता है, यह सिद्ध हो जाता है। - इसी प्रकार चाणक्य नीति में कहा है-“दरिद्रता, दुःख, रोग, बन्धन और नाना दुःख-संकट आदि ये सब आत्मापराध रूपी वृक्ष के फल हैं।" कर्म किये बिना फल भोगने का सवाल ही नहीं उठता। ___ इसी दृष्टि से कर्मबद्ध संसारी आत्मा का लक्षण कर्म-ग्रन्थ के विवेचन में दिया गया है जो विभिन्न प्रकार के कर्मों का कर्ता है, वही कर्मफल का भोक्ता है। वह जब तक संसार में रहता है तब तक कर्म संयुक्त रहता है, और तभी तक संसार में परिभ्रमण
१. कर्मविपाक सूत्र (प्रस्तावना) (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. २८-२९.
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