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२१२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी कहा गया है-“जीव (आत्मा) कर्ता है क्योंकि वह कर्म, नोकर्म तथा समस्त कार्यों को करता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप सामग्री के अनुसार जीव संसार एवं मोक्ष स्वयं उपार्जित करता है।''
निष्कर्ष यह है कि “जीव और पुद्गल में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण ही जीव (व्यवहारनय की दृष्टि से) ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता उसी प्रकार माना जाता है, जिस प्रकार से कुम्भकार घट का कर्ता कहलाता है।"
__- आत्मा के साथ कर्तृत्व और भोक्तृत्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। जैनदर्शन का तकी कि आत्मा अपना संकोच और विस्तार इसलिए करती है कि उसमें कर्तृत्व की शक्ति है। यदि उसका अपना कर्तृत्व न होता तो वह संकोच और विस्तार करने में असमर्थ रहती। अतः आत्मा कर्ता है, और वह यह सब करता है-कर्मशरीर के कारण। जो कर्ता हो, वही भोक्ता है, क्योंकि आत्मा में करने और भोगने, दोनों की स्वतन्त्रता है। इसलिए आत्मा का एक लक्षण बन गया-"जो कर्मभेदों का कर्ता है, और कर्मफल का भोक्ता है, वही आला
नयचक्र बृहवृत्ति में भी इस तथ्य को युक्तिपूर्वक सिद्ध किया गया है-"देहधारी जीव (विविध पदार्थों का) भोक्ता होता है। जो भोक्ता होता है, वह कर्ता भी होता है। जो कर्ता होता है, वह कर्म संयुक्त होता है। कर्मसंयुक्त जीव संसारी होता है। वह कर्म दो प्रकार का है-द्रव्यकर्म और भावकर्म। फलितार्थ यह है कि निश्चय (नय) से वह भावकर्म का और व्यवहार (नय) से द्रव्यकर्म का कर्ता होता है।
वस्तुतः मिथ्यादर्शन आदि भावकों का उदय होने से जीव ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जिससे आत्मा में द्रव्यकर्म (कर्मपुद्गल) का आसव (आगमन) होता है। उससे आत्मा कर्मबन्ध करता है। अर्थात् वह द्रव्यकर्म का कर्ता होता है। फिर बद्धकर्म के पुद्गल के फलस्वरूप आत्मा सुख-दुःखादि का अनुभव करता (भोगता-वेदन करता है।
१. कार्तिकयानुप्रेक्षा १८८ २. (क) जैनदर्शन और अनेकान्त, से भावांश ग्रहण पृ. ८८
(ख) यः कर्ता कर्म भेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च, स ह्यात्मानान्यलक्षणः। ३. नयचक्र वृहद्वृत्ति : १२४-१२५
देहजुदो सो भुत्ता, भुत्ता सो चेव होई इह कत्ता। कत्ता पुण कायजुदो जीवो संसारिओ भणिओ। कम्मं दुविह-वियप्पं भावे अ दव्वाणं। भावे सो णिच्छयदो कत्ता, बवहारदो दब्वे॥
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