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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २१३ इसलिए पंचास्तिकाय वृत्ति में कहा गया है- “व्यवहार से जीव आत्मपरिणामों के निमित्त से होने वाले पौद्गलिक कर्मों का करने वाला होने से कर्मकर्ता है। जो कर्म का कर्ता है, वही कर्मफल का भोक्ता है।” समयसार टीका में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है“अतः निमित्त-नैमित्तिक भाव की अपेक्षा से आत्मा में कर्म के कर्तृत्व, भोक्तृत्व और भोग्यत्व का व्यवहार होता है।"" सांख्यदर्शन का पुरुष को अकर्ता और प्रकृति को भोक्ता मानना युक्तिविरुद्ध है सांख्यदर्शन के आत्मा को अकर्ता और भोक्ता मानने का सिद्धान्त भी युक्तिविरुद्ध है। क्योंकि यदि पुरुष (आत्मा) अकर्ता है और प्रकृति द्वारा किये गए कर्मों का भोक्ता है, तब तो पुरुष निष्क्रिय एवं असत् सिद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार अचेतन घटपटादि पदार्थ पुण्य-पाप के कर्ता नहीं हो सकते, उसी प्रकार अचेतन प्रकृति भी पुण्य-पाप की कर्त्री नहीं हो सकती। यदि अचेतन प्रकृति को कर्त्ता माना जाएगा तो घटपटादि अचेतन पदार्थों को भी कर्ता मानना पड़ेगा। तीसरी बात यह है कि "आत्मा प्रकृति के द्वारा किये गए कार्यों का उपभोग करता है, यह कथन भी युक्तिविरुद्ध है। व्यवहार में यह देखा जाता है कि जो कार्य करता है, वही उसके फल का उपभोग करता है। इस दृष्टि से यदि प्रकृति कर्त्री है तो उसे ही फलभोक्त्री मानना चाहिए।" यदि एक के द्वारा किये गए (भोजनादि) कर्मों का फलभोग दूसरा कर लेता है, ऐसा माना जाएगा तो एक के किये हुए भोजन से दूसरे को तृप्त होना चाहिए; जो लोकव्यवहार के विरुद्ध है। न्याय कुमुदचन्द्र में भी कहा है- जो पुरुष भोग क्रिया करता है, वह भोक्ता कहलाता है। तब अन्य क्रियाएं क्यों नहीं कर सकता ? नयचक्रवृत्ति में कहा गया"देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता होता है, वह कर्ता भी होता है।" षड्दर्शनसमुच्चय में कहा है- जो कर्मफल भोगता है, वह कर्ता होता है; जैसे- किसान कृषि कर्म करता है, तो अपनी खेती का भोक्ता भी होता है। इसलिए वही फसल को काटता है। तत्वार्थ राजवार्तिक में स्पष्ट कहा है कि "यदि आत्मा (पुरुष) अकर्ता होकर किये गए कर्मों का फल भोगता है तो किये गए कर्मों के फल का विनाश और न किये हुए कर्मों के फल की प्राप्ति होने का दोष आएगा, जो युक्तिविरुद्ध एवं अनुचित है । "२ १. ( क ) "ववहारेणात्म-परिणाम-निमित्त पौद्गलिककर्मणा कर्तृत्वात् कर्ता । - पंचास्तिकाय ता. प्र. २७/५८ (ख) ततो निमित्त - नैमित्तिक- भावमात्रेणैव तत्र कर्तृ-कर्म-भोक्तृ-भोग्यत्व-व्यवहारः ॥ -समयसार पृ. ४५५ २. (क) अमितगति श्रावकाचार ४ / ३५ (ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन ) से भावांश ग्रहण, पृ. ११९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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