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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २११
करती है, वह अपने ही भावों का कर्ता है। किन्तु रागद्वेषादि वैभाविक भावों का कर्ता होने से वह विभावों का कर्ता है, भावकों का कर्ता है। आत्मा मनुष्य, तिर्यंच, नरक और देवगति में जाती है; नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव बनती है। यह उसका वैभाविक कर्तृत्व है। वैभाविक कर्तृत्व के कारण उसे चारों गतियों मे भ्रमण करना पड़ता है। भावकों का कर्ता होने के कारण उपचार से आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्ता भी माना जाता
प्रवचनसार की टीका में कहा गया है-“आत्मा अपने भावकर्मों का कर्ता होने के कारण उपचार से द्रव्यकर्म का कर्ता कहलाता है।''२ आत्मा (शुद्धरूप में) चैतन्यस्वरूप है और कर्म (शुद्धरूप में) पौद्गलिक एवं जड़रूप हैं। इस कारण शुद्ध निश्चयनय या अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से तो आत्मा कर्मपुद्गल का उपादान कारण नहीं हो सकता; क्योंकि जो वास्तविक कर्ता (उपादान) होता है, वह स्वयं कार्यरूप में परिणत होता है। जैसे-घड़े का वास्तविक कर्ता (उपादान) कुम्भकार नहीं है, मिट्टी है; किन्तु व्यवहार में अम्मकार को घड़े को बनाते-पकाते देखकर लोकरूढ़ि से कहा जाता है-कुम्भकार घड़े का कर्ता तथा भोक्ता है। यद्यपि कुम्भकार घड़े का उपादान कारण नहीं है, तथापि निमित्त कारण होते हुए भी वह घड़े का कर्ता माना जाता है। आशय यह है कि घटपर्याय में नमित्त कर्ता कुम्भकार है।" ___ समयसार में भी इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है.-"जैसे-व्यवहार नय की अपेक्षा से लोकव्यवहार में आत्मा (जीव) घट, पट, रथ आदि वस्तुओं को बनाता-करता देखा जाता) है, इसी प्रकार वह इन्द्रियों को, तथा क्रोधादि अनेक प्रकार के द्रव्यकर्मों एवं शरीरादि नोकों को भी करता है।''
द्रव्यसंग्रह की टीका में भी कहा गया है-"व्यवहारनय से जीव ज्ञानावरणीयादि मों, औदारिक आदि शरीर, आहारादि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलरूप नोकर्मों तथा बाह्य घट-पटादि पदार्थों का कर्ता है।
१. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. ८९ २. प्रवचनसार तत्त्वदीपिका टीका २९ ३. समयसार आत्मख्याति टीका २१४ १. ववहारेण दु एवं करेदि घड-पड-रथाणि दव्वाणि।
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि।।" ५. द्रव्यसंग्रह टीका ८ : “पुग्गल मादीण कत्ता ववहारदो दुनिच्छयदो।
दा, न सुद्धनया सुद्ध भावाणं।"
-समयसार ९८
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