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________________ २१० · कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पंचास्तिकाय में कहा गया है - वस्तुतः बन्ध में भाव निमित्त है। अतः राग-द्वेष मोहादि से युक्त भाव आत्मा के लिए बन्ध के कारण हैं। इस दृष्टि से अशुद्ध स्थिति में आत्मा स्वयं भावकर्मबन्ध का कर्त्ता बन जाता है।' व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्ता है इतने विश्लेषण के पश्चात् भी यह शंका बनी रहती है कि आखिर पुद्गल कर्म का (द्रव्य-कर्म का) कर्त्ता कौन है ? अर्थात्-लोक व्यवहार में तथा शास्त्रों में यत्र-तत्र ऐसा कहा जाता है कि अमुक जीव ने ऐसा (यह) कार्य किया, जिसका उसने अमुक फल भोगा । इसका समाधान यह है कि वस्तुतः उपादान कारण ही कर्म का वास्तविक कर्त होता है। आत्मा का उपादान कारण कर्म नहीं है। इसलिए शुद्ध निश्चय दृष्टि से तो आला अपने ही भावों का कर्त्ता है। निमित्त कारण में जो कर्ता होने का व्यवहार किया जाता है, वह औपचारिक है, व्यावहारिक है। जैसे कि समयसार में कहा गया है - कर्मबन्ध का निमित्त होने के कारण उपचार से कहा जाता है कि इस जीव ने कर्म (कर्मबन्ध) किया। जैसे लोकव्यवहार में हम देखते हैं कि योद्धागण युद्ध करते हैं, किन्तु उपचार से ( व्यवहारदृष्टि से ) कहा जाता है - राजा युद्ध करता है। इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है-आत्मा ने ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध किया। इसलिए आत्मा व्यवहार दृष्टि से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्त्ता कहलाता है।"२ आत्मा का स्वाभाविक और वैभाविक कर्तृत्व और भोक्तृत्व अतः जैनकर्मविज्ञान ने आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को चार भागों में विभक्त कर दिया -(१) वैभाविक कर्तृत्व, (२) स्वाभाविक कर्तृत्व, (३) वैभाविक भोक्तृत्व और (४) स्वाभाविक भोक्तृत्व | आत्मा अपने स्वभाव (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ) को १. भावनिमित्तो बंधो, भावो राग-दोष -मोहादो। २. (क) समयसार १०५ -७ जीवम दुभूदे बंधस्सइ, पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कडं कम्मं भणदि उवयार मत्तेण ॥ १०५ ॥ जोकि जुद्धे एण कदंति अप्पदे लोगो । तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ||१०६ ॥ (ख) समयसार (आ.) ३७२ (ग) समयसार (आ.) ८२ (घ) पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only " - पंचास्तिकाय www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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