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________________ २०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) वेदभाव (कामभाव) से दूषित आत्माएँ भी उक्त कर्म की कर्ता न माने जाने पर ब्रह्मचारी ही कहलाएँगी, अब्रह्मचारी नहीं क्योंकि कर्म ही वेद नामक कर्म की अभिलाषा करता है।" ___"इसी प्रकार कोई जीव किसी दूसरे को मारता है, या दूसरे से मारा जाता है, इसका कारण कर्मशास्त्रों में क्रमशः उपघात एवं पराघात नामक कर्मप्रकृतियाँ हैं। परन्तु एकान्त कर्म-कर्तृत्ववाद के मतानुसार कोई भी जीव (आत्मा) किसी का वध करने वाला नहीं माना जाएगा, फिर तो यही कहा जाएगा कि उक्त कर्म ही कर्म का घात करने वाला है। इस प्रकार सांख्यमत के अनुसार जैसे प्रकृति ही की है, पुरुष कर्ता नहीं, वैसे ही कर्म ही कर्ता होंगे, सभी जीव (आत्मा) अकारक (अकर्ता) हो जाएँगे।'' सर्वथा अकर्ता होने की स्थिति में आत्मा मोक्ष का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकेगा . __ ऐसी स्थिति में यदि जीव (आत्मा) अकर्ता है, वह कर्म नहीं करता, तो उसको किसी प्रकार का बन्ध भी नहीं होना चाहिए| बद्ध तो वह होता है, जो कर्म का कर्ता हो। और मुक्त होने की इच्छा भी उसे होती है, जो बंधा हुआ हो। जिसके बंधन ही नहीं, उसे मुक्ति की परवाह क्यों होगी? और वह मोक्ष का पुरुषार्थ भी क्यों करेगा? साथ ही जो कुछ नहीं कर सकता, वह मोक्ष का पुरुषार्थ भी कैसे करेगा? क्योंकि उसमें कुछ भी करने की क्षमता नहीं है। कर्म को कर्ता मानने से व्यक्ति कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा - यह सत्य है कि कर्म स्वयं अपना कर्ता नहीं होता। कर्म किसी न किसी आत्मा (जीव) द्वारा किया जाता है, इसलिए वह आत्मा की कृति है। उसका कर्तृत्व आत्मा का है; कर्म का स्वयं का नहीं। यदि व्यक्ति द्वारा किया गया कर्म ही सब कुछ कर्ता-धर्ता बन जाए, तो कर्म-कर्ता आत्मा (जीव) गौण बन जाएगा। जबकि कर्म में अपने-आप में कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व है-व्यक्ति के अन्तर में निहित संकल्प में। कृति और कर्ता का यह अन्तर स्पष्ट है। यदि कर्म को कर्ता माना जाएगा तो व्यक्ति अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा, ऐसी स्थिति में बन्ध भी कर्म का ही होगा, व्यक्ति का नहीं। जैन दर्शन व्यक्ति को कर्म करने (संकल्प करने) में स्वतन्त्र मानता है; इसलिए व्यक्ति अपने कृत के प्रति उत्तरदायी होता है। कर्म को उतना ही महत्व दिया जाता है, जितना उसका मूल्य है। १. देखें, समयसार की गाथा ३३६ से ३४0 तक २. देखें-पंचम कर्मग्रन्थ पर प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी) पृ. १३ ३. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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