________________
कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २०५ आत्मा सर्वथा अकर्ता है। क्रिया जड़ की होती है। अतः जो कुछ भी परिणमन होता है, उसका कर्तृत्व जड़ कर्म पर है। ऐसे लोग एकान्त कर्म-कर्तृत्ववादी हैं। वे ईश्वरकर्तृत्ववादियों की तरह कहते हैं-“कों के द्वारा ही जीव अज्ञानी और उन्हीं के द्वारा ज्ञानी कर दिया जाता है। कर्म ही जीव को सुलाते हैं, कर्म ही उसे जगाते हैं। कर्म के कारण ही जीव ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक में भ्रमण करता है। जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म हैं, वे भी कर्म के द्वारा ही किये जाते हैं।"
यदि कर्मवादी भी इसी तरह मानने लगे कि कर्म के बिना कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है, वह सब कर्म से ही होता है। वह एकांगी धारणा है। वस्तुतः कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थानापन्न नहीं हो सकता। कर्म के बिना कुछ नहीं होता, यह सिद्धान्त मान लेने पर ईश्वरवाद और कर्मवाद में कोई अन्तर नहीं रहेगा। ईश्वर के स्थान पर कर्मवाद बैठ
जाएगा।
- जैनकर्मविज्ञान के अनुसार यह मन्तव्य यथार्थ नहीं है। यदि सब कुछ करने की क्षमता कर्म में मान ली जाएगी तो ईश्वर और कर्म में कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकेगी। कर्म का स्थान है, पर वह सीमित है। वही सब कुछ नहीं है। यदि वही सब कुछ होता तो मनुष्य कर्मक्षय एवं कर्मनिरोध की साधना करके सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं कर सकता था। एकान्त कर्मकर्तृत्ववाद के अनुसार आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानने में दोष ___ एकान्त कर्मकर्तृत्ववादियों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-जब कर्म ही (आपके मतानुसार) सब कुछ करता है, हर्ता है, (फल) दाता है, तब तो समस्त जीवों (आत्माओं) में अकारकत्व आ गया। अर्थात्-संसार में समस्त जीव सदा के लिए अकर्ता कहलाएंगे। इस एकान्त कर्मकर्तृत्ववाद में दोषापत्ति बताते हुए आचार्य कहते
"पुरुषवेद नामक कर्म के उदय से स्त्री की अभिलाषा और स्त्रीवेद नामक कर्म के उदय से पुरुष की वांछा होती है, किन्तु आत्मा को किसी भी कर्म का कर्ता न मानने पर
१. (क) कम्मेहिं दु अण्णाणी किज्जइ णाणी, तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहि, सुवाविज्जइ जग्गाविज्जइ तहेव कम्मेहिं ॥३३२॥ . (ख) कम्मेहि, भमाविज्जइ उड्ढमहो वावि तिरियमलोयं च।
कम्मेहिं चेव विज्जइ सुहासुहं निच्छियं किंचि ॥३३४॥ २. (क) जहा कम्म कुव्वइ, कम्मं देह हरति जं किंचि। तम्हा दु सव्वेजीवा अकारगार्हति आवज्जइ॥३३५॥
-समयसार गा. ३३२ से ३३५ तक (ख) जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण, पृ. १०९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org