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२०४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कर्ता नहीं है, अतः वह फलभोक्ता भी नहीं हो सकेगा, यह दोषापत्ति आएगी, जो जैनदर्शन को इष्ट नहीं है।'
सब कुछ कर्ता-धर्ता, फलदाता ईश्वर है : यह मन्तव्य भी दोषयुक्त
ईश्वरकर्तृत्ववादियों का कहना है कि प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई कर्ता होता है। कर्त्ता के बिना कोई भी क्रिया नहीं होती । कायिक प्रवृत्ति हो, या मानसिक अथवा वाचिक; हर प्रवृत्ति के पीछे कोई न कोई कर्ता अवश्य रहता है। सृष्टि रचना भी एक क्रिया एवं प्रवृत्ति है। अतः इसका भी कोई न कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए। संसार में होने वाले प्रत्येक कार्य, कर्म या प्रवृत्ति का कर्ता कोई न कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं समर्थ कर्ता है, और वह ईश्वर है। जब सृष्टि का कर्ता-धर्ता और संहर्ता ईश्वर है, तब सृष्टि के अन्तर्गत जितने भी जीव हैं, वे भले ही स्वयं कर्म करते दिखाई देते हों, परन्तु उन्हें कर्म करने की प्रेरणा ईश्वर से ही मिलती है। अतः परोक्ष रूप से ईश्वर ही जगत् के के कर्मों का कर्ता-धर्ता है।
भगवद्गीता के अनुसार - " हे अर्जुन! ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय-प्रदेश में रहता है। वही समस्त प्राणियों को (शरीररूपी) यंत्रारूढ़ की तरह अपनी माया से (स्व-स्वकर्मानुसार) भ्रमण कराता है।"२
अतएव ईश्वर ही समस्त जीवों को कर्मों के फल के रूप में स्वर्ग या नरक में भेजता है। सुख या दुःख भी वही देता है। जीव में स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है और न ही स्वयं कर्मफल भोग लेने की शक्ति है। निष्कर्ष यह है कि ईश्वर को कर्त्ता-धर्त्ता मानने वाले तो इस विषय में युक्तिपूर्वक कोई चिन्तन-मनन नहीं करते कि कर्म का कर्ता-धर्ता अथवा फलदाता कौन है ? वे एकमात्र ईश्वर के ही भरोसे निश्चिन्त होकर बैठ जाते हैं।
आत्मा सर्वथा अकर्ता है, जड़ कर्म ही सब कुछ करता है : यह एकान्त कर्मकर्तृत्ववाद है
इसी प्रकार कुछ दार्शनिक कर्म के मर्म को यथार्थरूप से न समझ कर शुद्ध निश्चयनय को ही यथार्थ मानकर एकान्ततः उसी का आश्रय लेते हैं और कहते हैं
(क) असंगो ह्ययं पुरुषः
(ख) तस्मान्न बध्यतेऽसौ न मुच्यते, नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥ - सांख्यतत्त्वकौमुदी, कारिका ६२ (ग) देखें - पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री) पृ. १२ २. ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन! तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ॥
-गीता १८/६२
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- सांख्यदर्शन
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