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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २०३ कर्म का स्वभाव आत्मा में आने का मानें तो सदा आत्मा में आता रहेगा ..
यदि यह कहें कि कर्म का आगमन अनायास ही आत्मा में होता रहता है, तब तो कर्म का यह स्वभाव मानना पड़ेगा कि वह आत्मा के किसी प्रयास के बिना अनायास ही आत्मा में आता रहेगा। ऐसी स्थिति में आत्मा का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। जीव का कर्म करने का स्वभाव मानें तो कभी कर्ममुक्ति नहीं
इसके विपरीत यदि यह मानें कि जीव (आत्मा) का ही ऐसा स्वभाव होगा कि वह कर्म करता रहे। किन्तु इस बात के मानने पर जीव अनन्तकाल तक सदैव कर्म करता रहेगा, कर्मों से मुक्ति रूप मोक्ष की फिर संभावना नहीं होगी; क्योंकि स्वभाव कभी उस द्रव्य से पृथक् नहीं होता। फिर जीव का स्वभाव कर्मों से मुक्त होने का न होकर सदैव कर्म करने का हो जाएगा। पुरुष अकर्ता है, प्रकृति ही की है, यह सांख्य सिद्धान्त भी ठीक नहीं
सांख्य दर्शन के सिद्धान्तानुसार यदि ऐसा कहें कि 'पुरुष (आत्मा) सर्वथा असंग है। वह शुद्ध, बुद्ध, निर्मल एवं त्रिगुणातीत है, ऐसा शुद्ध स्वरूपी पुरुष कर्म का सर्वथा अकर्ता है। प्रकृति सत्व-रजस्-तमस् रूप त्रिगुणात्मिका है। पुरुष (आत्मा) के संयोग से प्रकृति ही समस्त कर्म करती है।
_. 'सांख्यतत्त्व कौमुदी' में भी सांख्यदर्शन के प्रकृतिकर्तृत्ववाद का निरूपण इसी प्रकार किया गया है - ‘अतः कोई भी पुरुष (आत्मा) न तो बँधता है और न ही मुक्त होता है; और न संसार-परिभ्रमण करता है। अनेक-आश्रय-ग्राहिणी प्रकृति ही संसरण करती है। वही बद्ध और मुक्त होती है।"
इस प्रकार जीव (आत्मा) को कर्म का अकर्ता माना जाए तो क्या हानि है ? पुद्गल द्रव्य (कर्म-पुद्गल) जीव के राग-द्वेषादि अशुद्ध भावों का सहारा पाकर स्वतः उसकी ओर आकृष्ट होता है। इसमें जीव (आत्मा) का कर्तृत्व ही क्या है ? जैसेकोई सुन्दर पुरुष कार्यवश बाजार से जा रहा हो और कोई सुन्दरी उस पर मोहित होकर उसके पीछे-पीछे चल पड़े तो उसमें उस सुन्दर युवक का क्या कर्तृत्व है ? की तो वह महिला है, पुरुष उसमें केवल निमित्त मात्र है। इस सिद्धान्तानुसार तो आत्मा
१. (क) हुं आत्मा छु, भा. २ (प्रवक्ता डा. तरुलता बाई स्वामी) पृ. १२२ (ख) यतस्तु स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम्। नित्या स्यात् कर्तृता चेतिन्यायान्मोक्षो न कस्यचित् ॥१०७६ ॥
-पंचाध्यायी, उत्तरार्ध
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