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________________ २०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) का ही कर्ता है। इसीलिए ‘समयसार तात्पर्यवृत्ति' में कहा गया है-आत्मा सदैव अपने भावों का कर्ता है, और पर अर्थात्-पुद्गल अपने पौद्गलिक भावों का ही सदैव कर्ता है। आत्मा के भाव आत्मरूप ही हैं, इसी प्रकार पुद्गल के भाव भी पुद्गल रूप हैं। श्री जयसेनाचार्य अपनी टीका में स्पष्ट करते हैं-“निर्मल आत्मानुभूति स्वरूप भेदज्ञानी जीव कर्मों का अकर्ता होता है।" __इसे दसरे शब्दों में कहें तो शुद्धनिश्चय दृष्टि से आत्मा के साथ परद्रव्य का (पुद्गल रूप कर्म का) किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसलिए निज गुणों में रमण करता हुआ आत्मा कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है? इसी तथ्य को ‘अध्यात्मबिन्दु' में स्पष्ट किया गया है-स्वयं को स्व-रूप में और पर-वस्तु को पर-रूप में जानता हुआ आत्मा समस्त परद्रव्यों से विरत हो जाता है। इस कारण वह चैतन्य स्वरूप प्राप्त आत्मा अपने आप में ही रमण करता है। अपने आप का अनुशीलन करता हुआ तथा अपने आपका निरीक्षण करता हुआ आत्मा किसी भी प्रकार से कर्म का कर्ता नहीं हो सकता।"३ कर्म ही कर्म का कर्ता : कैसे? दूसरे शब्दों में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-शुद्ध निश्चय दृष्टि से जीव (आत्मा) कर्म का कर्ता नहीं है, कर्म ही कर्म का कर्ता होता है। क्योंकि जीव में कर्म सत्ता में पड़े हैं, वे कर्म ही अपने परिस्पन्द (कम्पन) के कारण अन्य कर्मों को खींचते हैं। अतः कर्म ही कर्म से कर्म के साथ बंधता है। आत्मा सचेतन है, और कर्म है-अचेतन (जड़); तथा कर्म जिससे आते हैं, वह मन-वचन-काय का योग भी जड़ है। जड़ के द्वारा निष्पन्न प्रवृत्ति जड़कों को ग्रहण करती है। जिस प्रकार कुत्ते के गले में रस्सी डालने पर उस रस्सी का गठबंधन रस्सी से ही होता है, कुत्ते के गले में नहीं, इसी प्रकार जड़ कर्म, जड़ कर्मों के साथ ही बँधते हैं, सचेतन आत्मा के साथ नहीं। १. स निर्मलात्मानुभूतिलक्षण-भेदज्ञानी जीवः कर्मणामकर्ता भवतीति। -जयसेनाचार्य टीका २. नास्ति सर्वोपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः॥ -समयसार गा.३२३ ३. स्वत्वेन स्वं परमपि परत्वेन जानन्, समस्तान्यद्रव्येभ्यो विरमणमिति यच्चिन्मयत्वं प्रपन्नः। स्वात्मन्येवाभिरतिमुपनयन् स्वात्मशीली स्वदर्शीत्येवं कर्ता कथमपि भवेत् कर्मणो नैव जीवः॥ -अध्यात्मबिन्दु ४. (क) हुं आत्मा छु, भा. २ (प्रवक्ता डा. तरुलता बाई स्वामी) पृ. १२२ (ख) जह सयमेव हि परिणमदि कम्म भावेण पुग्गलं दव्वं । जीवा परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा। -समयसार ११९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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