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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २०१ की दृष्टि से जीव (आत्मा) न तो द्रव्यकर्मों का कर्ता ही प्रमाणित होता है और न भोक्ता ही; क्योंकि द्रव्य-कर्म पौद्गलिक (जड़रूप) हैं, पुद्गल द्रव्य के विकार हैं, अतएव वे 'पर' हैं, उनका कर्ता चैतन्यस्वरूप आत्मा कैसे हो सकता है ? सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने - अपने स्व-भाव में स्थित है। उसके परिणमन में अन्य द्रव्य उपादान कारण नहीं बन सकता। इसी प्रकार जीव (आत्मा) भी न तो पुद्गल का उपादान कारण है और न पुद्गल जीव का उपादान कारण हो सकता है। अतः चेतन का कर्म तो चैतन्य रूप होता है और अचेतन का अचेतनरूप । यदि चेतन का कर्म अचेतन रूप होने लगे, तब तो चेतन और अचेतन में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। दोनों का भेद नष्ट होने से सांकर्य-दोष उपस्थित हो जाएगा। प्रत्येक द्रव्य स्व-भाव का कर्ता है, पर-भाव का नहीं अतः प्रत्येक द्रव्य स्व (निज) भाव का कर्ता है, जैसे पानी का स्वभाव शीतल होता है, मगर अग्नि का संयोग होने से वह उष्ण हो जाता है। इससे उष्णता पानी का धर्म (स्वभाव) नहीं है, वह अग्नि का स्वभाव है। अतः जल में उष्णता का कर्ता जल को नहीं माना जाता। उसका कर्ता अग्नि है। जल में उष्णता अग्नि के संयोग से आई है, वह नैमित्तिक है, निमित्त (अग्नि) का सम्बन्ध पृथक् होते ही वह चली जाती है। निश्चय दृष्टि से आत्मा पुद्गल (कर्म) समूह का कर्ता नहीं हो सकता इस पर से आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय दृष्टि से कहा- “ अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर जो पुद्गल-द्रव्य कर्मरूप में परिणत होते हैं, निश्चय दृष्टि से उस पुद्गल समूह का कर्ता आत्मा नहीं हो सकता, आत्मा तो अपने स्वभाव के अनुसार अपने ही भावों का कर्ता है। वह पुद्गल कर्म-समूह का कर्ता नहीं हो सकता, यह जिनेन्द्र भगवान् का वचन . जानना चाहिए।””” अतः शुद्ध निश्चय दृष्टि से तो आत्मा (जीव ) कर्म का कर्ता नहीं है।' वह केवल अपने निजी गुणों (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति और अनन्त आत्मिक सुख ) १. (क) कुव्वं सभावमादा हवदि कत्ता सग्गस्स भावस्स । पोग्गल दब्यमाणुं ण दु सव्व भावाणं ॥ (ख) कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । नहि पोग्गलकम्माणं, इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ कम्मं पिस कुव्वद सण सहावेणं सम्ममप्पाणं ॥ २. (क) परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो । सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारओ होदि ॥ (ख) आत्मभावान् करोत्यात्मा, परभावान् परः सदा । आत्मैव ह्यात्मनोभावाः परस्य पर एव ते । Jain Education International For Personal & Private Use Only - द्रव्यसंग्रह १८४ - समयसार - समयसार २३ -- समयसार वृत्ति www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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