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________________ २०० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) का कथन करती है।"" ' तत्वज्ञानतरंगिणी' में भी दोनों नयों का आश्रय लेने की प्रेरणा की गई है-" जैसे दोनों नयनों के बिना वस्तु का सम्यक् प्रकार से अवलोकन नहीं होता है, उसी प्रकार दोनों नयों के बिना भी वस्तु का यथार्थरूप से ग्रहण नहीं हो सकता।" तत्त्वानुशासन में दोनों नयों का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है-निश्चयनय में कर्ता, कर्म, करण आदि भिन्न नहीं होते। अतः वह अभिन्नकर्तृकर्मादि - विषयक है - अभेदग्राही है। व्यवहारनय कर्ता, कर्म आदि भेद का ग्राही है; भेद दृष्टि युक्त है। कर्म का कर्ता-भोक्ता कौन है ? इस प्रश्न पर भी जैन दार्शनिकों ने दोनों दृष्टियों से गहन विचार-मन्थन किया है। 'कर्म का विराट् स्वरूप' नामक तृतीय खण्ड में द्रव्यकर्म और भावकर्म की व्याख्या के प्रसंग में हम बता आए हैं कि जैनदर्शन में कर्म केवल जीव के द्वारा किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का नाम ही नहीं है किन्तु जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है-‘“जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल का कर्मरूप में परिणमनं होता है, अर्थात् जीव द्वारा मन-वचन-काया से की जाने वाली क्रिया (प्रवृत्ति) के साथ रागादि रूप परिणामों के निमित्त से पुद्गल - परमाणु कर्मरूप में आकृष्ट होते हैं; यानी जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं। वे पुद्गल - परमाणु कर्म कहलाते हैं। तथा उन पुद्गलपरमाणुओं के फलोन्मुख होने पर उनके (पौद्गलिक कर्मों के) निमित्त से जीव में जो काम, क्रोध आदि भाव (परिणाम) होते हैं, वे भी कर्म कहलाते हैं।' अर्थात् पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से जीव में रागादि भावों का परिणमन भी कर्म कहलाता है। पहले प्रकार के कर्मों को द्रव्यकर्म और दूसरे प्रकार के कर्मों को भावकर्म कहते हैं। - एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का उपादानकारण नहीं हो सकता तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो जीव न तो कर्म में गुण (विशेषता) पैदा करता है, और न ही कर्म जीव में कोई गुण उत्पन्न करता है। किन्तु जीव और पुद्गल का एक दूसरे के निमित्त से विशिष्ट परिणमन स्वतः ही हुआ करता है | अतः निश्चयनय 9. पंचम कर्म ग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) पृ. ११ २. द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग्द्रव्यार्थावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं च स्याद्वादिभिः॥ ३. अभिन्न-कर्तृ कर्मादि-विषयो निश्चयो नयः । व्यवहारनयो भिन्न-कर्तृ-कर्मादि-गोचरः ।। ४. जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि। विकुव्वदि कम्मगुणं जीवो, कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोणणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोन्हं पि ॥ ५. Jain Education International For Personal & Private Use Only -तत्त्वज्ञानतरंगिणी -तत्त्वानुशासन २९ - समयसार गा. ८६ -वही गा.८७ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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