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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? कर्म का कर्ता-भोक्ता कौन? : एक प्रश्न जैनकर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से तलस्पर्शी चिन्तन-मनन किया है। उन्होंने कर्म सिद्धान्त के विषय में कोई भी कौना अछूता नहीं छोड़ा है। उनके सामने जब यह प्रश्न आया कि कर्म तो अजीव-जड़ पुद्गल हैं, जीव चेतनायुक्त है, फिर सचेतन जीव अचेतन कर्म को कैसे श्लिष्ट या बद्ध कर सकता है ? स्पष्ट शब्दों में कहें तो-“कर्म का कर्ता कौन ठहरता है ? तथा उसका भोक्ता (फल भोगने वाला) भी कौन है?" अर्थात्-कर्मपुद्गलरूपी अजीव द्रव्य के साथ चैतन्यस्वरूप जीवद्रव्य किस प्रकार सम्बद्ध हो सकता है ? जैनकर्म-विज्ञान-विशेषज्ञों ने इन और ऐसे प्रश्नों का गहराई से विभिन्न दृष्टियों से समाधान किया है। जैन दर्शन में कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का दोनों दृष्टियों से समाधान जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह किसी भी वस्तु तत्त्व का निरूपण सर्वांगी दृष्टि से करता है। वह एकांगी दृष्टि से निरूपण नहीं करता, न ही एक दृष्टिकोण पर अवलम्बित रहता है। कर्म के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के सम्बन्ध में भी जैनदार्शनिकों ने निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों (नयों) का अवलम्बन लिया है। आचार्य अभयदेव ने स्पष्ट उदघोष किया है-“यदि तम जिन-धर्म को स्वीकार करना चाहते हो, उसके रहस्य को समझना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों (दृष्टियों) को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ (शासन=संघ) का उच्छेद हो जाता है और निश्चय के विना तथ्य-सत्य का अपलाप होता है।" निश्चयदृष्टि (नय) वह है, जो पर-निमित्त के बिना वस्तु के वास्तविक (यथार्थ) स्वरूप का कथन करती है और व्यवहार दृष्टि वह है, जो पर-निमित्त की अपेक्षा से वस्तु ., जइ जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहार-निच्छए मुयह। इक्केण विणा तित्थं छिज्जइ, अनेण उ तच्चं ॥ -भगवतीसूत्र-टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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