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________________ कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २०७ आत्मा भेदविज्ञान होने से पूर्व तक कर्मों का कर्त्ता है, सर्वथा अकर्ता नहीं इस जटिल समस्या को सुलझाते हुए कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ आचार्य अमृतचन्द्र क हैं - अर्हद्भक्तों के लिए यही उचित है कि वे सांख्यों के समान जीव (आत्मा) को सर्वथा अकर्ता न मानें। किन्तु भेदविज्ञान होने से पूर्व आत्मा को (अशुद्ध निश्चयनयानुसार) रागादिरूप भावकर्मों का कर्ता मानें। भेदविज्ञान की ज्योति की उपलब्धि हो जाने के बाद आत्मा को कर्मभावरहित, अविनाशी, प्रबुद्ध ज्ञान का पुंज, प्रत्यक्षरूप एकमात्र ज्ञाताद्रष्टारूप में देखें। श्री जयसेनाचार्य समयसार टीका में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं"अतः यह बात निश्चित है कि आत्मा सांख्यमत के समान सर्वथा अकर्त्ता नहीं है। वह रागादि विकल्प-रहित समाधिरूप भेदविज्ञान के काल में कर्मों का कर्ता नहीं है, किन्तु शेष काल में कर्ता होता है।"" यहाँ भेदविज्ञान अविरत-सम्यग्दृष्टि का ज्ञापक नहीं, अपितु रागादि विकल्परहित, निर्विकल्प समाधि-रूप अवस्था का द्योतक है, जो मुनिपद धारण करने के पश्चात् ही प्राप्त होता है। विकल्पजालपूर्ण गृहस्थावस्था में उसकी सम्भावना कम है। अतः जब तक आत्मा निर्विकल्प समाधि रूप भेदज्ञानयुक्त नहीं होता तब तक उसके रागादि के कारण कर्मबन्ध हुआ करता है। अर्थात्-त - तब तक वह कर्मों का कर्ता रहता है। जैनदर्शन आत्मा को कथंचित् कर्ता कथंचित् अकर्ता मानता है अतः नैयायिक, वैशेषिक, वेदान्त, एवं मीमांसा - दार्शनिकों की तरह जैनदर्शन ने भी आत्मा को शुभ-अशुभ, द्रव्य-भावकर्मों का कर्ता माना है। किन्तु अन्य भारतीय दर्शनों की अपेक्षा, जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह अपने अनेकान्त सिद्धान्त के अनुसार आत्मा को कथंचित् कर्ता और कथंचित् अकर्ता मानता है। जैनदर्शन न तो नैयायिक आदि के मतानुसार आत्मा को एकान्त कर्ता मानता है और न ही सांख्यदर्शन की तरह पुरुष (आत्मा-जीव) को सर्वथा अकर्ता मानता है। १. ( क ) या कर्तारमयी स्पृशन्तु पुरुषं, सांख्या इवाऽप्यार्हताः । कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः ॥ ऊर्ध्वं तद्धतः बोधवाननियतं, प्रत्यक्षमेव स्वयं । पश्यन्तुं च्युतकर्मभावममलं ज्ञातारमेकं परम् ॥ (ख) ततः स्थितमेतत् एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति, किं तर्हि ? रागादि-विकल्प-रहित-समाधिलक्षण भेदज्ञानकाले कर्मणः कर्ता न भवति, शेषकाले कर्तेति । - समयसार टीका गा. ३४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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