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कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १९५
पूर्णिया श्रावक के पास गया था । अतः कर्मवाद स्वेच्छाकृत व आत्मकृत आन्तरिक एवं आध्यात्मिक समता में मानता है, जबकि समाजवाद सत्ता द्वारा कृत बाह्य अर्थ-समानता में विश्वास करता है। इन दोनों की यही विसंगति है।
आन्तरिक व्यवस्था एवं शरीरादि बाह्य एवं नोकर्मकृत सामाजिक व्यवस्था में कर्मकृत समानता का उत्कृष्ट विधान आगमों में मिलता है, नौ ग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तर वैमानिक देवों का । जैसी समानता वहाँ है, वैसी समानता तो साम्यवादी और समाजवादी देशों के लिए भी कर पाना असम्भव है।
राज्यसत्ता रहित राज्य का लक्ष्य : दूरातिदूर
मार्क्सवादी समाजवाद (साम्यवाद) का अन्तिम लक्ष्य है- राज्यसत्ता रहित राज्य (Stateless state) की स्थापना करना । वह लक्ष्य तो अभी बहुत दूर है। साम्यवादी राज्यों में अभी तो डिक्टेटरशिप (अधिनायकवाद) है। कठोर शासनतंत्र है, कि व्यक्ति स्वेच्छा से, बिना किसी के दमन एवं दबाव के स्वेच्छा से इतना त्याग कर सकेगा, और वैराग्य तथा उतना आत्मानुशासन रख सकेगा, यह अभी तो साम्यवादी देशों के लिए दिवास्वप्न-सी बात है। व्यक्ति स्वेच्छा से संवर-निर्जरारूप धर्म का आचरण कर ले, स्वेच्छा से अपने आप पर अनुशासन रख ले, तभी शासनतंत्र की आवश्यकता महूसस नहीं होगी। यही शासनविहीन समाज रचना का विशुद्ध चित्र है।
ऐसा उच्चकोटि का आत्मानुशासन आने पर तो व्यक्ति स्वयं उच्चकोटि का दिव्यपुरुष बन जाएगा। वह साधारण मनुष्य नहीं रह सकता। और ऐसी समता की स्थिति (नौ ग्रैवेयक तथा पंच अनुत्तर वैमानिक) कल्पातीत देवों में होती है। वहाँ कोई स्वामी और भृत्य नहीं होता, कोई इन्द्र या अधिपति नहीं होता, सभी अपने आप में इन्द्रत्व से सम्पन्न आत्मानुशासित अहमिन्द्र होते हैं। इतना ही नहीं, शारीरिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति, ऋद्धि, द्युति तथा आत्मबल में भी वे समान होते हैं। उनके लिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है - " आयु, प्रभाव, सुख, धुति (कान्ति), लेश्या की विशुद्धि तथा इन्द्रियों का एवं अवधिज्ञान का विषय, ये सब उपर-ऊपर के देवों में अधिक है। किन्तु गति, शरीर का परिमाण, परिग्रह और अभिमान, इन विषयों में ऊपर-ऊपर के देव हीन (न्यून) हैं। लान्तक से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक में शुक्ललेश्या होती है।""
१. (क) स्थिति - प्रभाव - सुख-धुति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रियावधि-विषयतोऽधिका: ॥२१॥ । गति-शरीर-परिग्रहऽभिमानतो हीनाः ॥२२॥
(ग) पीत- पद्म शुक्ल - लेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु ॥ २३ ॥
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- तत्त्वार्थसूत्र अ. ४ सू. २१-२२-२३
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