SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) उसके कषायों या रागादि की तीव्रता - मन्दता थी। दूसरी प्रकृति है - पुद्गलविपाकी । इस प्रकृति के परिणाम स्वरूप जीव को शरीर, मन, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, शरीरादि बल, प्राण डीलडौल, कद, मन, बुद्धि, वचन आदि से सम्बन्धित शुभ-अशुभ परिणति आदि सब पौद्गलिक उपलब्धियाँ पुद्गलविपाकी कर्म प्रकृति के परिणाम हैं।' जहाँ शरीरादिगत समानता नहीं, वहाँ कर्म का साम्राज्य है क्या रूस या चीन आदि देशों में सभी मनुष्यों की आकृति, शरीर, शरीर का ढाँचा, डीलडौल, वाणी, बुद्धि, आयुष्य, स्वस्थता - अस्वस्थता, योग्यता-अयोग्यता, चाल-ढाल, बौद्धिक या शारीरिक क्षमता एक सरीखी है ? उनमें कोई अन्तर नहीं है? साम्यवादी देशों में आर्थिक समानता भले ही कुछ अंशों में हो गई हो, परन्तु उनमें स्वभावगत समानता, आन्तरिक समानता तथा शरीरादिगत समानता नहीं आई है, इसलिए कि वहाँ कर्म का साम्राज्य है। कहना होगा कि समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना हो जाने पर भी कर्मवाद के सिद्धान्त को या उसके अस्तित्व को कोई आँच नहीं आती । कृत्रिम आर्थिक समानता होने पर भी अभी वहाँ आन्तरिक समानता या शरीरादिकृत समानता नहीं आ पाई है, इसलिए विविध कर्म वहाँ भी अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का तो कर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं है। समाजवाद द्वारा कृत परिवर्तन : आन्तरिक और सर्वांगीण नहीं दूसरी बात यह है कि अर्थव्यवस्था आदि बाह्य परिवर्तन भी सत्ता ( दण्डशक्ति) के द्वारा किया हुआ, वह भयाधारित है। कर्मवाद में संवर और निर्जरारूप धर्म के द्वारा किया जाने वाला आन्तरिक और पुण्यकर्म प्रबलतावश बाह्य परिवर्तन व्यक्ति के द्वारा स्वेच्छाकृत होता है । स्वेच्छाकृत परिवर्तन स्थायी होता है, यही आध्यात्मिक समता (साम्ययोग) का उत्पादक है। समाजवाद द्वारा किया गया आर्थिक समानता का बाह्य एवं कृत्रिम प्रयत्न न तो स्थायी है, और न व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण परिवर्तन है। कर्म का सम्बन्ध आन्तरिक परिवर्तन एवं शरीरादि पौद्गलिक परिवर्तन से है; इन दोनों बातों में समानता लाना, समाजवाद या साम्यवाद के वश की बात नहीं। अगर यह परिवर्तन राज्यसत्ता के द्वारा होता तो भगवान् महावीर का परमभक्त मगधसनाद् श्रेणिकनृप अवश्य ही ऐसा कर देता। बल्कि वह स्वयं भी आध्यात्मिक समता ( सामायिक) को प्राप्त करने के लिए सामायिक (समतायोग) के निष्ठावान् साधक १. (क) देखें-कर्मग्रन्थ भा. ५ ( पं. सुखलालजी) (ख) कर्मवाद पृ. २२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy