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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १९३ क्या साम्यवाद आने से कर्मवाद समाप्त हो जाएगा ? इस साम्यवादी पद्धति की आर्थिक समानता को देखकर कर्मवाद के सिद्धान्त से अनभिज्ञ कई लोग कहने लगते हैं, जब गरीब-अमीर का भेद मिट जाएगा, तब कर्मवाद कैसे टिकेगा? कर्मवाद की बुनियाद तो इसी भेद पर टिकी है ? परन्तु कर्मवाद की नींव इतनी कमजोर नहीं है कि कृत्रिम आर्थिक समानता हो जाने से वह ध्वस्त हो जाएगा। इस प्रकार की भ्रान्तियों के कारण कर्मवाद के विषय में काफी गलतफहमी हो गई ।' आर्थिक व्यवस्था बदल जाने मात्र से कर्मवाद समाप्त नहीं हो जाता क्या आर्थिक व्यवस्था बदल जाने से यह मान लिया जाए कि रूस, चीन या अन्य साम्यवादी देशों में कर्मवाद समाप्त हो गया ? क्या हाथी, घोड़े, गाय आदि के पास अर्थ एवं बाह्य परिग्रह न होने से वहाँ समानता स्थापित हो गई ? जब तक कोई भी त्याग स्वेच्छा से समझ-बूझपूर्वक धर्मदृष्टि से न हो, तब तक कोई भी व्यक्ति कर्मनिर्जरा (कर्म का अंशतः क्षय) नहीं कर पाता। क्या रूस और चीन आदि देशों में सत्ता द्वारा अर्थव्यवस्था परिवर्तन कर्मवादसंगत है ? क्या वहाँ के लोगों की प्रकृति या मनःस्थिति बदल गई? आन्तरिक विकारों की उपशान्ति हो गई ? क्या उन देशों के लोगों में क्रोधादि कषाय उपशान्त हो गए? क्या वहाँ कोई राग-द्वेष, मोह नहीं करता ? किसी वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति प्रियता या अप्रियता का संवेदन नहीं करता ? यह ठीक है कि वहाँ व्यक्तिगत स्वामित्व पर प्रतिबन्ध लग जाने से बेईमानी और भ्रष्टाचार अवश्य कम हुए हैं, परन्तु क्या वहाँ के लोगों की मनोभावना, कषायादि की मनोवृत्ति में भी परिवर्तन आया है ? उन देशों की राष्ट्रीय रिपोर्टों से पता लगता है कि वहाँ भी बड़े-बड़े अधिकारी आर्थिक गड़बड़ करते हैं। वहाँ भी परस्पर क्लेश और कलह होते हैं। कर्म को वे लोग मानें या न मानें, कर्म अपना कार्य तो व्यवस्थित ढंग से करता ही है। साम्यवादी देशों में भी व्यक्ति क्रोधादि कषाय करता है, आर्थिक भ्रष्टाचार कुछ अंशों में है, मनुष्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन नहीं आया, न ही उनके चारित्र में आध्यात्मिक परिवर्तन आया। इसका कारण यह है कि उनके भीतर कर्म - अशुभ कर्म मौजूद हैं। क्रोधादि विकार आन्तरिक कर्म के परिणाम हैं। समूचा आन्तरिक परिवर्तन कर्मकृत होता है। कर्म की मुख्यतया दो प्रकृतियाँ : जीवविपाकी और कर्मविपाकी कर्म की मुख्यतया दो प्रकृतियाँ हैं - जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी । प्रथम प्रकृति का जीव में परिपाक होता है। अर्थात् जीव के कषायादि विकार वैसे ही बन जाते हैं, जैसी १. वही, पृ. २२० २. वही, पृ. २२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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