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________________ १९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) नहीं बैठे रहे। वे अहिंसा-सत्यादि के पालन द्वारा या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप की आराधना द्वारा अथवा नीतिन्याय के परिपालन द्वारा अशुभ कर्मों का या तो क्षय कर डालते हैं, अथवा उन्हें शुभरूप में परिणत कर डालते हैं। कर्मवाद इस प्रकार के धर्मानुरूप अभ्युदय में उनका हाथ नहीं रोकता। समाजवाद में भी इस प्रकार के सत्कर्म करने वाले लोगों को प्रोत्साहन एवं पारितोषिक मिलता है। समाजवाद के साथ कर्मवाद की इस विषय में कोई असंगति नहीं है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द आदि गरीब माता-पिता की सन्तान थे, किन्तु उन्होंने अपने शुभ अध्यवसाय से, दृढ़ निश्चय से, बौद्धिक कौशल से, अथवा सच्चरित्रता से तथा विद्या की उपासना से नैतिक, आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर ली थी। कर्मवाद का कथन है कि जीव अपने कर्मों को स्वयं भोगकर क्षय कर सकता है, स्वयं ही नये कर्म बांध सकता है। आत्मकर्तृत्व एवं आत्मभोक्तृत्व की बात से समाजवाद का भी कोई विरोध नहीं है। समावाद का तीसरा पक्ष : राजनैतिक क्रान्ति समाजवाद ने यह सिद्धान्त तो स्थापित कर दिया कि सम्पत्ति समाज की है, उस पर व्यक्ति का स्वामित्व स्वीकृत नहीं किया जा सकता। मगर इस सिद्धान्त को क्रियान्वित करने के लिए समाजवाद के सूत्रधारों को समाज को अथवा समाज की पुरातन अर्थव्यवस्था को बदलना आवश्यक था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने समाजवाद का तीसरा राजनैतिक पक्ष चुना।' उन्होंने इस सन्दर्भ में सत्ता द्वारा समाज परिवर्तन' की नीति अपनाई। उन्होंने पूर्वोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह विचारधारा प्रचलित की कि जब तक राज्यसत्ता हाथ में नहीं आ जाती, तब तक समाज को या आर्थिक व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। राज्यसत्ता सर्वहारा (शोषित) वर्ग के हाथ में आने पर ही धनिक और गरीब का, मालिक और मजदूर का वर्ग संघर्ष मिट सकता है। तभी गरीब और अमीर का भेद मिट सकता है और आर्थिक समानता स्थापित हो सकती है। साम्यवादी देशों ने समाजवाद की इस नीति का प्रयोग किया। सत्ता साम्यवादी राजनेताओं के हाथों में आ गई। गरीब-अमीर का भेद समाप्त करने हेतु वहाँ सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व इतना सीमित कर दिया कि सम्पत्ति के आधार पर कोई छोटा या बड़ा, अथवा ऊँचा या नीचा नहीं कहला सकता। दीन, भिखारी और भूखा आदमी साम्यवादी देशों में नहीं मिलेगा। १. कर्मवाद पृष्ठ २१८ २. कर्मवाद पृष्ठ २१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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