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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १९१ जीवनयापन की सहूलियतें नोकर्म से सम्बन्धित हैं, जिनसे सारी स्थितियों में तब्दीली हो सकती है। कर्मवाद इन परिवर्तनों में बाधक नहीं है, परन्तु इनका सीधा सम्बन्ध नोकर्म से है। कर्मवाद का सम्बन्ध इन बाह्य व्यवस्थाओं से नहीं, किन्तु व्यक्ति की आन्तरिक संवेदनाओं एवं भावनाओं से है। जहाँ कर्मवाद को व्यवस्थाओं तथा समाज की परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों के साथ जोड़ दिया जाता है, वहाँ पूर्वोक्त प्रकार की भ्रान्तियाँ फैलती हैं। कर्मवाद को व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ने से ये भ्रान्तियाँ शीघ्र ही मिट जाएगी। फिर यह भ्रान्ति मिट जाती है कि अधिक धन प्राप्त होना पुण्यकर्म का और निर्धन होना पापकर्म का फल है। किन्तु धन हो या न हो, मन में शान्ति, सन्तोष, समता (राग-द्वेष तथा कषाय की उपशान्ति या विरति) हो तो वह व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च स्तर पर पहुँच जाता है, उसे आत्मिक सुख प्राप्त हो जाता है। आन्तरिक वैभव ही वास्तविक वैभव है जैन-साधु-साध्वियों के पास धन नहीं, अपने स्वामित्व का कोई स्थान, मठ, मन्दिर या धर्मस्थान नहीं, तो क्या जैन साधु वर्ग को दरिद्र कहा जाता है ? बाह्य वैभव से रहित होने पर भी जैन साधु वर्ग के पास संतोष, क्षमा, शान्ति, तितिक्षा, पवित्रता, सत्यता, संयम आदि आध्यात्मिक गुणों का अपार आन्तरिक वैभव है। बाह्य वैभव सम्पन्न लोगों के दिलों में प्रायः असन्तोष, चिन्ता, व्यग्रता, अशान्ति, विषमता, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों की आग लगी रहती है। इसलिए कर्मवाद का सीधा सम्बन्ध आन्तरिक वैभव से है; बाह्य वैभव से नहीं। बाह्य वैभव तो एक चोर, डाकू, वेश्या, सिनेमा एक्टर-एक्ट्रेस के पास प्रचुर मात्रा में मिलता है, परन्तु उससे क्या वे सच्चे वैभवशाली कहलाएँगे? धर्म और अध्यात्मरूपी वैभव का ऐसे लोगों के पास दिवाला है। जैनकर्मवाद सत्पुरुषार्थ को रोकता नहीं जैनकर्मवाद निराश होकर आलसी बनकर, हाथ पर हाथ धरे रहकर बैठने का सन्देश नहीं देता। वह एकान्त रूप से यह निरूपण भी नहीं करता कि पूर्वजन्मकृत कर्म के फलस्वरूप जो कुछ प्राप्त हो गया, वही सब कुछ है; इस जन्म में किये हुए शुभाशुभ कर्म का फल इस जन्म में या तत्काल नहीं मिलता। धर्मवाद निर्धन को भी विकसित होने का मौका देता है आज भी हम देखते हैं, कई व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप निर्धन तथा निम्न कुल में उत्पन्न हुए थे। किन्तु वे उसी स्थिति में सन्तुष्ट, अकर्मण्य व हताश-निराश होकर 9. कर्मवाद पृ. २२० २. कर्मवाद पृ. २२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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