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________________ १९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) एवं शोषणकर्ता न हों।' व्यक्तिगत आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखो। इच्छाओं और आवश्यकताओं पर संयम होने से स्वतः ही इस व्रत का पालन हो जाएगा। इस प्रकार भ. महावीर ने कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में संयम, नियम, व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान, संवर आदि की प्ररूपणा की। यह समाजवाद के साथ कर्मवाद का सामंजस्य था। परन्तु मध्ययुग में कर्मवाद के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएँ समाज में घर कर गई। धनवान् होना भाग्यशालिता का और निर्धन होना भाग्यहीनता का लक्षण माना जाने लगा। अमुक व्यक्ति निर्धन है तो लोग कहने लगे-यह अभागा है, इसने पूर्वजन्म में शुभकर्म नहीं किये, इसलिए दुःख भोग रहा है। कोई व्यक्ति धनाढ्य है तो उसे भाग्यशाली बताकर कहा जाने लगा-इसने महान् पुण्य किया था, इसलिए इतना धन मिल गया। ___ भ. महावीर ने तो महापरिग्रह को बुरा माना है, नरक गमन का कारण माना है, जबकि समाज की प्रचलित गलत धारणा ने अधिकाधिक धन-संग्रह को बुरा न मानकर पुण्यवानी का कारण मान लिया। कोई व्यक्ति अल्पसंग्रही हो, सादगी से रहता हो, अथवा अभाव में भी प्रसन्न रहता हो, उसके विषय में भी इस प्रकार की गलत धारणा के अनुसार यों कह दिया जाता है"बेचारा क्या करे ? पूर्वजन्म में अशुभकर्म किये हैं, जिससे इस प्रकार की अभावपीड़ा में पिसना पड़ रहा है।" इस प्रकार कर्मवाद के सन्दर्भ में अर्थसम्पन्न और अर्थविपन्न दोनों को अच्छे-बुरे भाग्य के साथ जोड़ दिया जाता है। यहीं समाजवाद के साथ कर्मवाद का संघर्ष शुरू हो जाता है। यद्यपि दोनों के अर्थसम्बन्धी दार्शनिक पक्ष भिन्न-भिन्न हैं। वहाँ इनमें मेल भी नहीं है, तो संघर्ष भी नहीं है। कर्मवाद के व्याख्याकारों ने व्यक्तिगत स्वामित्व को उचित और न्याय-सम्पन्न माना है, किन्तु उस पर कुछ नैतिक नियंत्रण भी लगाये हैं। वास्तव में यह भ्रान्ति तब पनपती है, जब कर्म और नोकर्म (कर्म की सहायक सामग्री) को एक मान लिया जाता है। अर्थ सम्बन्धी व्यवस्था हो, राजनैतिक व्यवस्था हो या सामाजिक व्यवस्था हो, किसी भी व्यवस्था के परिवर्तन का सीधा सम्बन्ध कर्म के साथ स्थापित नहीं किया जाना चाहिए। व्यवस्था परिवर्तन को कर्मविपाक के निमित्त के रूप में या कर्मफल भुगवाने में सहायक के रूप में समझा जाना चाहिए। इस तथ्य-सत्य को भली-भाँति समझ लेने पर वृद्धावस्था, बीमारी, अकाल मृत्यु इन सबमें परिवनत लाना आसान हो जाएगा। आर्थिक व्यवस्था, चिकित्सा-सुविधा एवं १. देखें आवश्यकसूत्र में श्रावक का सप्तम उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत २. कर्मवाद पृ. २१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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